Sunday 30 October 2011

उज्जायी प्राणायाम

उज्जायी वह प्रक्रिया है जिसमें फुप्फुस पूरी तरह फैलाये जाते हैं और अभिमानी विजेता के समान सीना बाहर निकाला जाता है / इसके लिए उपयुक्त समय प्रातः काल अथवा सायंकाल है |यह कभी भी किसी साफ सुथरे स्थान पर जहाँ प्रदूषण न हो, किया जा सकता है |  |
विधि :---
-१- पद्मासन, सिद्धासन अथवा सुखासन में सुविधानुसार आसन पर बैठ जाएँ |
२- पीठ को सीधा एवं कड़ा रखें | धड की ओर सिर को थोडा नीचा करें और सीने  की हड्डी के ठीक ऊपर हंसुलियों के बीच कटाव पर चिबुक को स्थिर [जालन्धर बंध ] रखें |
३-मुंह और दोनों आँखें बंद रखें तथा दोनों नाक छिद्रों से सामान्य रूप से श्वास लेते हुए दृष्टि को अन्तर्मुखी बनाएं |
४- अब श्वास को पूरी तरह छोड़ें | यहीं से श्वास की उज्जायी प्रणाली आरम्भ होती है |
५- दोनों नाकों से धीमी ,गहरी ,स्थिर साँस लें और अंदर आती हुई हवा के मार्ग का अनुभव तालू के ऊपरी  भाग पर होता है तथा सिसकारी  की ध्वनि  होती है | इस ध्वनि  को ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए |
६- ऐसा महशूस करें कि श्वास गले की नली से छोड़ रहें हैं ,नाक के छिद्र से नहीं |
७- पुनः नया श्वास लेने के पहले कुछ सेकंड के लिए ठहरें ,इसे वाह्य कुम्भक कहते हैं |
८- आँखें पूर्णतयः बंद रखते हुए पांच से दस मिनट के लिए इस मालिका को दुहरायें और अंत में शवासन में लेट जाएँ  | निम्न रक्त चाप की स्थिति में इसे न करें |
९ -इस दौरान यह ध्यान रहे कि श्वास सामान्य और अत्यंत धीमा हो जो एक शिशु के श्वास की भांति हो |
परिणाम :----
- यह प्राणायाम कंठ के संक्रामक रोग को दूर करता है और कफ को रोकता है |
२- स्वास्थ्य में गिरावट रोकने के लिए इसे अवश्य करें |
३- यह ह्रदय रोग की बीमारियों को ठीक करता है और नाड़ियों को शांत करता है |
४- यह जठराग्नि तेज करता है और सिर की गर्मी दूर करता है |
५- झुकी हुई स्थिति में बिना कुम्भक के किया गया उज्जायी प्राणायाम उच्च रक्त चाप या कपालवेदना से पीड़ित व्यक्तियों के लिए उत्तम है |
६- यह आक्सीजन की मात्रा  बढ़ाकर स्नायु व्यवस्था में शांति लाता है ,फलतः परम सुख की भावना पैदा होती है |
७- यह अतिरिक्त लार पैदा करता है जिससे गले की खुश्की दूर हो जाती है |
८- यह एक ऐसा प्राणायाम है जिसे रात और दिन कभी भी सुविधानुसार किया जा सकता है |
९ - यदि कोई रोगी उच्च रक्त चाप ,खुजली और अनिद्रा से पीड़ित है तो वह उज्जायी प्राणायाम एक घंटे तक करे | यह क्रिया योग में  अजपाजप के साथ भी की जाती है |
१०- यदि जिह्वा को ऊपर की ओर लपेटकर एवं  तालू से सटाकर किया जाये तो अतिरिक्त लार पैदा होगी और इससे पाचन क्रिया सहज हो जाएगी |

शीर्षासन

सिर पर खड़े होने का आसन अत्यंत महत्वपूर्ण यौगिक आसनों में से एक है |यह मौलिक शारीरिक स्थिति है| शीर्षासन माला में कई प्रकार से इस आसन को किया जाता है जैसे सालम्ब शीर्षासन ,निरालम्ब शीर्षासन ,ऊर्ध्व पद्मासन ,कपाली आसन आदि। यह सभी आसन शीर्षासन के ही विस्तार के रूप में जाने जाते हैं।  शीर्षासन में पारंगत होने के बाद किसी कुशल शिक्षक की देखरेख में ही उक्त आसन करना चाहिए।प्रारम्भिक अवस्था में नये साधक को सावधानीपूर्वक निम्न विधि के अनुसार शीर्षासन  करना चाहिए :----
१- चार तह किया हुआ कम्बल भूमि पर बिछाएं और उसके पास में घुटने टेक कर आगे की ओर झुककर बैठें  |
२- अपनी एडियों के बल बैठकर घुटनों को जमीन पर एक साथ रखिये |
३- हाथों की अँगुलियों को आपस में फंसाकर अपने दोनों हथेलियों के पृष्ठ भाग को सिर के आगे  आसन पर रखें |
४- कम्बल पर केवल सिर का कपाल ही स्थिर करें और अपने सिर का पिछला हिस्सा हथेलियों के समीप ही रखें 
५-अपने पैर की अँगुलियों को सिर के निकट लाते हुए शरीर और घुटनों को जमीन से ऊपर की ओर उठायें |
६- श्वास छोड़ें एवं भूमि पर से हल्की उछाल लेते हुए मुड़े घुटनों को सीधा करते हुए दोनों टाँगें एक साथ ऊपर उठायें ताकि उसका भार आपके सिर और भुजाओं दोनों पर पड़े | इस क्रिया में घुटनों को शरीर के पास ही रखें |
७-अपनी टांगों को तानें और भूमि की सीध में सारे शरीर को रखते हुए सावधानीपूर्वक सिर पर खड़े हो जाएँ |
८- अपनी सामर्थ्य के अनरूप कुछ क्षणों तक इस स्थिति में स्थिर रहें तत्पश्चात अपनें पैरों को बहुत धीरे धीरे जमीन पर लायें | नौसिखिये व्यक्ति को एक मित्र की सहायता आवश्यक है या दीवार के सहारे इसे करें | दीवार  और सिर के बीच दो - तीन इंच का अंतर रखें |यदि अंतर अधिक होगा तो रीढ़ के टेढ़ी होने और पेट बढने की सम्भावना बढ़ सकती है |
९- दीवार के सहारे इसे करते समय नितम्बों को दीवार का सहारा दें और पैर ऊपर ले जाएँ तत्पश्चात पीठ को लम्ब रूप में ऊपर तानना चाहिए और धीरे-धीरे दीवार का सहारा छोडकर  संतुलन पर प्रभुत्व पाना चाहिए |  १०- जब एक बार संतुलन प्राप्त हो जाता है तब टागें सीधी किये बिना और नितम्बों के पीछे ओर की क्रिया के साथ भूमि पर नीचे आना सहज हो जाता है | टांगों को मोड़े बिना ऊपर जाना और नीचे आना प्रारम्भ में सम्भव नहीं है परन्तु उपरोक्तानुसार आत्मविश्वास के साथ यह क्रिया धीरे धीरे सहज हो जाती है |
११- जब एक बार आत्मविश्वास आ जाये तब सिर की स्थिति निश्चित करने के बाद भूमि से घुटने उठाते हुए टांगें सीधी तानें और पीठ सीधी रखते हुए पैर की अंगुलियाँ सिर के पास लायें तथा भूमि पर एडियाँ दबाने की कोशिश करें |रीढ़ के मध्य भाग को तानते हुए समान रूप से श्वास लें और ३० सेकंड या सामर्थ्य के अनुरूप कुछ देर इस स्थिति में रहें |प्रारम्भ में इसे २० सेकंड में करें और प्रतिदिन १० सेकंड उसमें जोडकर आगे आसन करते रहें | इसे प्रातः काल दिन में केवल एक बार ही खाली पेट की स्थिति में करें तथा इसे करते समय मन को सह्स्र्सार चक्र या अपनी साँस पर ध्यान केन्द्रित रखें |
शीर्षासन की स्थिति में ऊर्ध्व पद्मासन लगाने हेतु सांसों को सामान्य करते हुए अपनी दाहिनी टांग को मोडते हुए बायीं जंघा पर रखें तथा बायीं टांग को मोड़ते हुए दायीं जंघा पर रखकर पद्मासन लगा लें और कुछ देर तक इसी स्थिति में स्थिर रहें। 
शीर्षासन सम्बन्धी सावधानी :--
-शीर्षासन में संतुलन मात्र महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि साधक को क्षण प्रतिक्षण निगरानी रखनी है और बारीक़ से बारीक़ स्थिति की जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए | जब हम पैरों पर खड़े होते हैं तब हमें अतिरिक्त प्रयास ,शक्ति एवं ध्यान की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि यह प्राकृतिक स्थिति है |
अतः इस आसन को ताड़ासन की स्थिति में करना उचित होगा |शरीर का सारा भार केवल सिर पर ही उठाना चाहिए न की हथेलियों और हाथों पर |हाथ और हथेली किसी प्रकार के असंतुलन को रोकने के लिए ही उपयोग में लाये जाएँ |सिर का पृष्ठ भाग धड ,जांघों के पृष्ठ भाग और एडियाँ भूमि की सीध में होनी चाहिए ना कि एक ओर झुकी हुई |गला, चिबुक और सीने की  हड्डी एक पंक्ति में होनी चाहिए अन्यथा सिर एक ओर झुकेगा |सिर के पीछे परस्पर गुथे हाथ इस प्रकार होने चाहिए कि हथेलियाँ सिर से सटने न पायें |हथेलियों के ऊपरी और निचले हिस्से एक सीध में होने चाहिए अन्यथा सिर का कपाल ठीक तरह से भूमि पर स्थिर नहीं होगा |जब व्यक्ति उच्च या निम्न रक्त चाप से पीड़ित हो तो उसे यह आसन नहीं करना चाहिए |
शीर्षासन का परिणाम :----शीर्षासन मस्तिष्क को ताजा बनाने के लिए अत्यंत प्रभावकारी विधि है |इसे आसनों का राजा भी कहा जाता है |जन्म के समय हम प्रायःपहले सिर बाहर निकालते हुए दुनिया में आते हैं तत्पश्चात अन्य अवयव बाहर लाते हैं | खोपड़ी के अंदर मस्तिष्क बंद रहता है जो नाड़ी मंडल और ज्ञानेन्द्रियों को नियंत्रित करता है | इस आसन से निम्न  लाभ होते हैं :---
१- यह मस्तिष्क के स्नायु केंद्र में शक्ति प्रदान करता है और उसे सक्रिय भी बनाता है |
२- मस्तिष्क की शक्तियों में सुधार लाता है और मन को सतर्क बनाये रखता है |
३- सिर के बालों को झड़ने से रोकता है तथा देखने और सुनने की क्षमता बढाता है |
४- आत्मिक आवेगों, भय,क्रोध, और श्वास सम्बन्धी विसंगतियों को उचित समय पर समाप्त कर देता है |
५-मस्तिष्क में रक्त की आपूर्ति के फलस्वरूप सेल और टिस्यू को शक्ति प्रदान करता है |तेजी से रक्त संचार होने एवं रक्त में आक्सीजन की आपूर्ति से ह्रदय और अंतड़ियों को राहत मिलती है |
६- महिलाओं के गर्भाशय की मांसपेशियों को सशक्त बनाता है |
७- हार्निया और बन्ध्यता में राहत देने ,उसे रोकने एवं उसे समाप्त करने में सहायक होता है |
८- सिफलिस ,गुनोरिया एवं अन्य जननेद्रिय तथा अंडाशय रोगों को ठीक करने में सहायक होता है |
९- इससे अनिद्रा ,गुर्दा रोग ,कब्जियत एवं स्वप्नदोष रोकने में सहायता मिलती है तथा आँख ,कान, गला, नाक  के रोगों को  ठीक करता है |
१०-निद्रा ,स्मृति एवं जीवनशक्ति की कमी से ग्रस्त व्यक्तियों ने इस आसन के नियमित एवम उचित अभ्यास से उसकी पुनर्प्राप्ति की है |इसका नियमित अभ्यास मन को अनुशासित करता है एवं स्फूर्ति और उत्साह की वृद्धि करता है |

Saturday 29 October 2011

वज्रासन

आसनों की श्रृंखला में वज्रासन एक सरल व अत्यंत लाभकारी  आसन की श्रेणी में रखा गया है |यह एक मात्र ऐसा आसन है जो खाना  खाने के तुरंत बाद भी किया जा सकता है |  इस आसन को आप अख़बार पढ़ते समय अथवा टी .वी . देखते समय भी कर सकते हैं /
विधि :----
१- किसी समतल स्थान पर एक कम्बल का टुकड़ा अथवा चादर बिछाकर उस पर अपने दोनों घुटने इस प्रकार मोड़कर बैठें कि दोनों जंघाएँ पैरों पर टिकीं  हों तथा एडियाँ दायें बाएं नितम्ब को स्पर्श करती हुई अगल बगल  लेटी हों |
२- पैर के दोनों अंगूठे आपस में मिले हों तथा तलवा ऊपर की ओर रहे |
३- नितम्बों को पैर के तलवे के बीच में रखें व टखनों को जांघों से स्पर्श कराएँ |
४- अंगूठों से लेकर घुटने तक के भाग जमीन को स्पर्श करते रहें |
५- सम्पूर्ण शरीर का भार घुटनों एवं आंशिक रूप से नितम्बों पर रखें |
  ६-  अपने घुटनों पर दोनों हाथों की  हथेली रखते हुए अपने हाथो को शिथिल रखें |
७- घुटने एक दूसरे के थोड़ी दूरी पर रहें |
८- सिर, गर्दन और मेरुदंड एक सीध में स्थित होने चाहिए | कुछ दूर पर सामने किसी वस्तु को एकटक देखते भी रह सकते हैं किन्तु आदर्श स्थिति में दोनों आँखें बंद ही  रखना चाहिए |
९- शरीर को शिथिल रखते हुए आराम से दोनों आँखें बंद करके बैठे तथा अपनी सांसों के आवागमन को मन की आँखों से देखते रहें  |
१० -इस स्थिति में १० से १५ मिनट तक बैठें तथा स्वाभाविक  रूप से श्वसन क्रिया करते रहें |
सावधानी :---
-पूरे समय तक सीधे बिना हिले डुले बैठे रहें | श्वास लेते और छोड़ते समय मन ही मन १०० तक की गिनती गिनते रहें तथा अपनी आँखों को बंद रखें |यदि इस दौरान आपके शरीर के किसी भाग अथवा घुटनों में दर्द मह्शूश हो तो इस आसन को कदापि न करें और सुखासन या पद्मासन में बैठ जाएँ | इस आसन पर बैठते समय यह ध्यान रहे कि नितम्ब एडियों पर ना रहें  बल्कि उनके अगल बगल स्थित हों | 
वज्रासन से लाभ :-----
१-वज्रासन सम्पूर्ण मेरुदंड का तनाव दूर करता है तथा तलवों एवं जंघाओं के खिंचाव को  भी दूर करता है  |
२- पैर और अंगूठों को शक्ति प्रदान करता है |
३- मन्दाग्नि रोग से ग्रस्त और ह्रदय रोगी को भोजन के उपरांत थोड़ी देर इस आसन पर अवश्य बैठना चाहिए |
४- यह आसन घुटने के रोगों से मुक्ति प्रदान करता है |
५- इस आसन पर बैठने से पाचन क्रिया तेजी से अपना कार्य करने लगती है |
६- पैरों की नाड़ियों, स्नायुओं और मांसपेशियों को सशक्त बनाता है |
७- इससे गठिया और  साइटिका का दर्द दूर हो जाता है |
 ८- सर्वाइकल के दर्द में भी यह आसन राहत प्रदान करता है |
९- कब्जियत और गैस की शिकायत को भी  दूर करता है |
१०- यह आसन  बवासीर में आराम देता है |
११-अमाशय एवं गर्भाशय की मांसपेशियों को सशक्त करता है

योग से रोगोपचार

यौगिक चिकित्सा-पद्धति  मनोविज्ञान ,शरीर विज्ञानं ,रसायन विज्ञानं ,पंच कोष ,पंच प्राण ,ग्रन्थियों तथा तत्वों के सिद्धांत पर आधारित हैं | हमारे शरीर में पर्याप्त प्रतिरोधक शक्ति विद्यमान है जो रोगों को जड़ से उखाड़ने  में समर्थ है | इस पद्धति के अंतर्गत शरीर की शुद्धि, अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को सक्रिय बनाने  ,सभी संस्थानों [नाड़ी, श्वसन, पाचन,रक्त -परिभ्रमण ,मल निष्कासन ] के कार्यों को उचित ढंग से संचालित करना, उपचार की अपेक्षा परहेज पर बल देना ,ब्रह्मचर्य को महत्व देना व आहार नियंत्रण से रोगों का निराकरण करना, चित्त शुद्धि ,आत्मिक पवित्रता ,षट्कर्म ,आसन, प्राणायाम,ध्यान आदि के द्वारा शरीर और मन को तनाव रहित करते हुए रोगोत्पत्ति  कारणों को समाप्त करना शामिल है | इनमें से कुछ पद्धतियों का वर्णन निम्नवत किया जा रहा है :----
षट्कर्म :-नेति क्रिया जिसमें जलनेति ,सूत्रनेति प्रमुख हैं |चूंकि नासिका के ऊपरी भाग और मस्तक की संधि पर अनेक नस -नाड़ियों का मेल होता है,अतः नेति से इनकी शुद्धि व सक्रियता में वृद्धि होती है |इससे आंख ,नाक, कान, गला व मष्तिष्क सभी अंग प्रभावित होते हैं |नासिका द्वारा जल-पान,दुग्ध-पान, घृत-पान आदि के प्रयोग से रोगों का इलाज किया जाता  है |
कुन्जल:-आमाशय और आहार नली की सफाई हेतु गुनगुना जल पीकर मुंह से ही निकला जाता है |इससे अम्ल पित्त और कफ बाहर आ जाता है |मन्दाग्नि ,रक्त विकार ,विष विकार ,पित्त के रोगों ,एसिडिटी और दमा रोग ठीक हो जाते हैं |
बस्ती या एनिमा :-बड़ी आंत में मल सड़ने से एवं मल के रुकने से विकार पैदा हो जाता है |इसके लिए इस  क्रिया के द्वारा मल को निष्काषित किया जाता है जिसके कारण बड़ी आंतें तथा पाचन तन्त्र सुचारू रूप से काम  करने लगती है | इस क्रिया से गैस ,बदहजमी ,बवासीर,कब्ज एवं पेट के अन्य रोगों को राहत मिलती है |
नौलि:--छोटी -बड़ी आँतों ,पेट की मासपेशियों ,स्नायु और रक्त वाहिनी नाड़ियों को यह क्रिया सशक्त बनाती  है तथा वात सम्बन्धी दोषों को दूर करने में सहायक होती है | इससे पेट के सभी रोग स्वतः दूर हो जाते हैं | 
त्राटक ,चक्षु प्रक्षालन तथा व्यायाम :--इस क्रिया से नेत्र पुष्ट एवं स्नायु मंडल शक्तिमान होते हैं | मन की एकाग्रता व शांति स्थिर होती है साथ ही संकल्प शक्ति का अभूतपूर्व  विकास हो जाता है |चक्षु प्रक्षालन तथा चक्षु व्यायाम से नेत्रों को स्वस्थ रखा जा सकता है |
कपालभाति:--इस क्रिया से कपाल अथवा मष्तिष्क की शुद्धि, मानसिक शांति तथा आँतों को अतिरिक्त शक्ति प्राप्त होती है | इससे सभी मुख्य ग्रन्थियां सक्रिय व सशक्त होती है | कपाल की नस नाड़ियों में एकत्र गंदगी बाहर निकल आती है जिससे नाक, कान एवं गला रोगों की सम्भावना कम हो जाती है |
आसन : ---रोग मुक्ति में आसन का विशेष योगदान होता है |इससे मन और शरीर दोनों स्वस्थ एवं पुष्ट होते हैं | आसन से स्नायु मंडल का तनाव दूर हो जाता है |मांसपेशियों के फैलने और सिकुड़ने से उनकी प्रकारांतर से मालिश होती रहती है तथा पेशियों के सक्रिय होने से रक्त प्रवाह शरीर के सभी अंगों तक आसानी से पहुँचता रहता है| आसनों के दौरान दीर्घ श्वास की क्रिया उत्पन्न होने से अधिक आक्सीजन मिलता है और रक्त शुद्धि भी होती रहती है |अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से पाचक रस उचित मात्रा में निकलने से समस्त संस्थान अपना कार्य सुचारू रूप से करते रहते  हैं |आसन से रीढ़ की हड्डी अधिक सशक्त व लचीली बन जाती है |अतः रोगों के शमन हेतु निम्नांकित आसनों का प्रयोग लाभकारी  सिद्ध होता है :-
रक्त हीनता में पवन मुक्तासन ,शवासन,सूर्य- नमस्कार,भुजंगासन,शलभासन वज्रासन लाभकारी होगा |नजला में सुप्त वज्रासन ,शशांक आसन ,शवासन तथा दमा रोगी के लिए शवासन, पवनमुक्तासन,सर्वांग आसन ,सुप्त वज्रासन,पश्चिमोत्तान आसन ,व शशांक आसन लाभकारी होगा |
पाचन क्रिया सुदृढ़ रखने हेतु सूर्य नमस्कार ,शवासन ,पश्चिमोत्तान आसन ,शलभासन धनुरासन ,अर्धमत्स्येन्द्र आसन ,सर्वांगासन ,हलासन ,सुप्त वज्रासन उपयुक्त होगा |
ह्रदय रोगी के लिए पवनमुक्तासन और शवासन ही पर्याप्त होगा |
अनिद्रा दूर करने के लिए सूर्य नमस्कार ,शवासन योगमुद्रा शशांकासन ,सर्वांगासन , सुप्तवज्रासन ,भुजंगासन पवनमुक्तासन करना चाहिए |
उक्त रक्त चाप के रोगी को पवनमुक्तासन ,शवासन ,वज्रासन तथा निम्न रक्त चाप के रोगी को सूर्य नमस्कार, शवासन ,शशांकासन ,व भुजंगासन करना चाहिए |
यकृत रोगी को सूर्य नमस्कार ,शवासन ,पश्चिमोत्तानासन ,शशांकासन, शलभ व धनुरासन करना चाहिए |  बवासीर रोगी हेतु सूर्य नमकार ,सर्वांगासन ,उष्ट्रासन ,सुप्त वज्रासन ,शवासन एवं पश्चिमोत्तान आसन लाभकारी होगा |स्नायु दौर्बल्य एवं विस्मृति दूर करने के लिए शीर्षासन ,सर्वांगासन ,सूर्यनमस्कार ,ताड़ासन ,सुप्त वज्रासन ,पश्चिमोत्तानासन, शवासन, योगमुद्रा ,शशांकासन करना उपयुक्त होगा |
वायु विकार के लिए पवनमुक्तासन ,सूर्य नमस्कार ,पश्चिमोत्तानासन ,भुजंगासन ,शलभासन ,धनुरासन करना चाहिए |
मधुमेह रोगी को शीर्षासन, सर्वांगासन,जानू शीर्षासन,धनुर्रासन,मयूरासन अर्ध नावासन व शलभासन करना चाहिए | 
कोष्ठबद्धता दूर करने हेतु शीर्षासन ,सर्वांगासन ,खड़े होकर करने वाले सभी आसन ,उत्तानासन ,एवं पश्चिमोत्तानासन लाभकारी होगा | प्रभावित रोगी को अपनी क्षमता के अनुरूप ही उपर्युक्त आसनों का प्रयोग करना चाहिए और उचित यह होगा की किसी कुशल शिक्षक की देख रेख में ही आसनो का अभ्यास करें | 
कुछ रोगों के निदान हेतु निम्नांकित सारिणी के अनुरूप आसनों का अभ्यास किया जाना लाभकारी होगा।
कान,आँख एवं नाक का दर्द  :-सिद्धासन ,सर्वागासन एवं अर्धमत्स्येन्द्र आसन
स्थायी कब्ज :-हलासन ,धनुरासन मत्स्यासन ,पाद ह्स्तासन
कुष्ठ रोग :-शीर्षासन ,पद्मासन सिद्धासन सिंहासन ,गोमुख आसन ,वक्रासन।
मोटापा :-मंडूक आसन ,पश्चिमोत्तान आसन ,सुप्त वज्रासन धनुरासन एवं अर्ध मत्स्येन्द्र आसन।
मासिक धर्म :-धनुरासन मत्स्यासन ,सुप्त वज्रासन एवं पश्चिमोत्तान आसन।
चरम रोग :- पद्मासन सिद्धासन ,सिंहासन ,वीरासन मन्दूक आसन ,सुप्त वज्रासन।
नपुसकतत्व :- पद्मासन ,सिद्धासन सिंहासन ,मंडूक आसन ,वज्रासन ,सुप्त वज्रासन एवं गोमुख आसन।
कमर का दर्द ;-वक्रासन ,हलासन एवं सूर्य नमस्कार
मुद्राएँ :---   यह  आसन और प्राणायाम के मध्य में प्रयुक्त  होता है |महामुद्रा से यौनरोग ,कुष्ठ रोग ,अजीर्ण ,भगन्दर एवं वायु रोग दूर होते हैं |विपरीत करनी मुद्रा से यौवन स्थिर रहता है जबकिअश्विनी मुद्रा से गुप्त रोग नष्ट होते हैं |भुजंगी मुद्रा से अजीर्णता दूर होती है |योग मुद्रा से यकृत सम्बन्धी समस्त रोग ठीक होते हैं ,जठराग्नि बढती है तथा नाड़ियाँ शुद्ध हो जाती हैं |काकी मुद्रा से अम्ल पित्त दूर होता है तथा पाशिनी मुद्रा से बल में वृद्धि होती है  |
बंध :--बंध का तात्पर्य बाँधने से है |प्राणायाम के दौरान बंधों का प्रयोग शरीर और मन दोनों को सशक्त करता है तथा ग्रन्थियां शक्तिशाली होती है | जालन्धर बंध से यौवन स्थिर एवं गले के रोग ठीक हो जाते हैं |उद्दीयान  बंध से आंतें ,गुर्दे एवं लीवर के रोग ठीक होते हैं |पैनक्रियाज ,यकृत ,एड्रिनल आदि ग्रन्थियां प्रभावित होती हैं | मूल बंध से बवासीर ,पौरुष ग्रन्थि के दोष ,खुजली ,अजीर्ण ,अनिद्रा बुढ़ापा ,दुर्बलता  आदि  दूर होते हैं | काम शक्ति और मन पर नियंत्रण रहता है और शरीर में हल्कापन भी  महशूस होता है |
प्राणायाम :---प्राण शरीर का आधार पुंज है | प्राण की कमी अथवा असंतुलन से भयंकर रोग जन्म ले लेते हैं | फेफड़े जो २४ घंटे में आठ टन रक्त शुद्ध करते है ,में किसी प्रकार का विकार या अवरोध रोग उत्पन्न कर सकता है | अतः प्राणायाम करने से शरीर में व्याप्त प्राणों व उप प्राणों में संतुलन बना रहता है |मन में शांति एवं शरीर में शिथिलता  का अनुभव होता है | नाड़ी शोधन ,भ्रस्त्रिका ,शीतली, उज्जायी, अनुलोम- विलोम एवं भ्रामरी प्राणायाम से मन और शरीर दोनों स्वस्थ व चैतन्य रहता है |
ध्यान :---रोगों के शमन में ध्यान का सर्वाधिक योगदान माना जाता है क्योंकि ध्यान से मन निर्विचार ,राग- द्वेष रहित,आनन्दमय तथा उलझनों एवं तनाव से मुक्त होता है | इससे मन में प्रसन्नता एवं हल्कापन भी महशूस  होता है |अतः ध्यान  रोगों को दूर करने के लिए रामबाण के रूप में प्रयुक्त हो सकता है |ध्यान अध्यात्मिक साधना का प्रमुख सोपान है |इसे मन का स्नान भी माना जाता है  / अतः ध्यान से आत्मानुभूति एवं आत्मानुभूति से ईश्वर की प्राप्ति सहज हो जाती है |
         

Thursday 27 October 2011

आहार एवं स्वास्थ्य

आहार एवं विहार  का जीवन से बड़ा गहरा सम्बन्ध है क्योंकि एक स्वस्थ शरीर के लिए संतुलित एवं सुपाच्य भोजन परमावश्यक  है |यौगिक चिकित्सा पद्धति में आहार का विशेष महत्व है |भोजन  वह पदार्थ है जिसके तत्व पचकर नये तत्वों में परिवर्तित होकर शरीर के ऊतक और शिराओं का अंग बन जाते हैं जो ऊर्जा का निर्माण करते हैं | अतः भोजन शरीर की आवश्यकता को देखते हुए उसी मात्रा और एक निश्चित  समय पर किया जाये जिससे शरीर पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े | भोजन से शरीर तो पुष्ट होता ही है साथ ही साथ वह हमारे विचारों को भी प्रभावित करता है  | भोजन मुख्यतः सात्विक एवं तामसिक दो प्रकार के माने जाते हैं /  भोजन  में पाए जाने वाले तत्वों का विशेष महत्व है ना कि भोजन के स्वाद का | भोजन के प्रमुख कार्य शरीर के अंगों की वृद्धि ,रासायनिक प्रतिक्रिया की क्षतिपूर्ति ,शक्ति उत्पादन ,रक्षात्मक कार्य ,विशेष रसों का निर्माण आदि हैं | अतः भोजन में निम्न तत्वों का होना अति आवश्यक है :----
प्रोटीन :----- रासायनिक संयोग से बने हुए यौगिक को प्रोटीन कहतें हैं | हमारे शरीर की समस्त मांसपेशियों का निर्माण प्रोटीन से ही होता है |यह शरीर के अंगों के विकास के साथ साथ हमें विभिन्न रोगों से लड़ने की  क्षमता भी प्रदान करता है |  वह भोजन जिसमें प्रोटीन की उचित मात्रा होती है वे हैं दाल,दूध,सोयाबीन,मटर,पनीर राजमा,  चना,मूंगफली ,अखरोट,अंडे,  मछली, मांस आदि |
कार्बोहाइड्रेट:--- इसमें शर्करा और स्टार्च का समावेश होता है जिससे यह शरीर में ऊर्जा के मुख्य श्रोतों में प्रमुख तत्व है जो शरीर में ग्लाइकोजन के रूप में जमा होता है |प्रोटीन तथा वसा के उपयोग तथा मांस पेशियों के निर्माण में भी कार्बोहाइड्रेट सहायक होता है |ऐसे तत्वयुक्त   भोजन चावल, गेहूं, आलू, चीनी, मिठाई, आम, केला शकरकंदी,गन्ना,शहद,गुड,हरी सब्जी तथा मीठे रसीले फलों से प्राप्त होते हैं |
वसा :---वसा शरीर में ऊर्जा का प्रमुख श्रोत है | इसे चिकने या चर्बी के रूप में भी जाना जाता है | यह शरीर के भीतर और शरीर के बाहर भी पाई जाती है |त्वचा के नीचे वसा बहुत अधिक मात्रा में होती है और यह शरीर को सुन्दर ,सुडौल व आकर्षक रखने में सहायक होती है तथा शक्ति और गर्मी प्रदान करती है  |वसा पाए जाने वाले भोजन में मुख्य दूध ,घी ,मक्खन,खोया,तेल, मूंगफली,काजू,सोयाबीन, बादाम,अंडा,अखरोट,मछली व मांस हैं |
विटामिन्स :---  विटामिन एक पौष्टिक तत्व है जिससे शरीर में ए,बी ,सी ,डी,ई तथा के विटामिन्स पायी जाती हैं |यह शरीर को स्क्स्थ, सुन्दर व आकर्षक रखने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं |यह शरीर में दो रूप में दृष्टिगत होती है;   पहली पानी में घुलने वाली जैसे बी सी और दूसरी वसा में घुलने वाली जैसे ए ,डी ई |भोजन में अधिक मात्रा में  विटामिन्स देने वालों में प्रमुख सभी प्रकार के फल ,ताजी सब्जियां ,दालों के छिलके व अंकुरित अनाज हैं |
खनिज लवण :--भोजन में सोडियम,पोटेशियम,कैल्शियम फास्फोरस,सोडियमक्लोराइड,बाईकार्बोनेट ,तांबा,सिलेनियम आदि भी आवश्यक  है |लवण शरीर में होने वाली जटिल कोशिकीय प्रक्रियाओं में सहायक होता है तथा शरीर को  स्वस्थ रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देता है |अस्थियों के निर्माण में कैल्शियम एवं फास्फोरस का बड़ा योगदान है |ये तत्व दूध अंडा अनाज हरे साग, गाजर आंवला आदि में पाए जाते हैं |लोहा शरीर में खून के लाल कणों के निर्माण के लिए आवश्यक है | चूंकि शरीर की लाली हिमोग्लोबिन की मात्रा पर निर्भर करती है. अतः लौह तत्व अधिक मात्रा में होना चाहिए |इसकी कमी से एनीमिया रोग की सम्भावना हो जाती है |लौह तत्व पाए जाने वाले पदार्थ है हरे साग [पालक,बथुवा ,सरसों ] ,बैगन, सेव ,अंडे आदि |आयोडीन की कमी से घेंघा रोग होने की सम्भावना होती है| अतः आयोडीनयुक्त नमक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है |
जल :---शरीर के लिए जल बहुत ही आवश्यक तत्व है |पूरे शरीर में ६० प्रतिशत पानी होता है अर्थात ६५ किलोग्राम के शरीर में लगभग ४० किलोग्राम पानी होता है |शरीर में पाचन क्रिया के लिए अधिक पानी लाभकारी होता है |पानी की कमी से शरीर में डिहाईडरेशन हो जाता है जिससे मनुष्य की मृत्यु भी हो जाती है | प्रदूषित जल से विभिन्न तरह के रोगों का जन्म हो सकता है | ऐसे रोग पीलिया, हैजा, कोलाइटिस व पेचिस हैं |
उपर्युक्त घटकों का समुचित संमिश्रण ही  हमें संतुलित आहार दे सकता है |विभिन्न खाद्य पदार्थों से प्राप्त होने वाली कैलोरीज भी भोजन का एक महत्वपूर्ण अंग है |प्रत्येक भोज्य पदार्थ से अलग अलग मात्रा में कैलोरी प्राप्त होती है जो निम्नवत हैं :---
प्रोटीन --------४ किलो कैलोरी प्रति ग्राम
कार्बोहाइड्रेट -------४ किलो कैलोरी प्रति ग्राम
फैट [वसा ]------ ९ किलो कैलोरी प्रति ग्राम
संतुलित आहार के लिए ५५ प्रतिशत ऊर्जा कार्बोहाइड्रेट से तथा २५ प्रतिशत ऊर्जा वसा से एवं २० प्रतिशत ऊर्जा प्रोटीन से प्राप्त होनी चाहिए |आहार के विभिन्न घटकों की आवश्यकता आयु के साथ परिवर्तित होती रहती है| अतः अवस्थानुसार इन घटकों का भोजन में संतुलित समावेश सुनिश्चित करनी चाहिए |
आहार के सम्बन्ध में निम्नांकित तथ्यों को भी ध्यान में रखना परमावश्यक है :-------
१- भोजन को फ्राई करने से उसके पोषक तत्व जैसे विटामिन्स ,प्रोटीन व खनिज तत्व नष्ट हो जाते हैं |
२- भोजन बनाने में आप उतना ही जल का प्रयोग करें जितना उसके लिए आवश्यक हो क्योंकि खाना पकाने के बाद  उसमें से अधिक पानी  फेंकने से  उसके पोषक तत्व निकल  जाते हैं |
३- अनाज के छिलकों में विटामिन्स की भरपूर मात्रा होती है | अतः चोकर युक्त आटे का ही प्रयोग करें |मैदा आँतों के लिए हानिकारक होता है क्योंकि वह आँतों में चिपक जाता है और पाचन क्रिया पर विपरीत प्रभाव डालता है |
४- फलों, हरी सब्जियों एवं सलाद का प्रयोग अधिक मात्रा में करें तथा भोजन के पूर्व हाथ मुहं धो लें ||
५-खाने को बार बार या अधिक देर तक गरम करने से उसके पोषक तत्व जैसे प्रोटीन  और वसा नष्ट हो जाते हैं|
६- ताजे और हल्के गरम  भोजन से स्वाद भी बना रहता है और पोषक तत्व भी सुरक्षित रहते हैं |
७- तेज भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए तथा भोजन के पहले या बाद में शारीरिक श्रम नहीं करना चाहिए तथा पेट को आधा भोजन से ,चौथाई पानी से और चौथाई हवा के लिए रिक्त छोड़ दें |
८- सप्ताह में एक दिन उपवास रखना अथवा केवल फलाहार रखना लाभकारी  होता है |
९- भोजन को खूब चबा चबा कर खाना चाहिए और जल्दबाजी में खाना कदापि न खाएं अन्यथा आँतों में सड़न होने की सम्भावना बढ़ जाएगी  |
१० -भोजन करते समय पानी बहुत कम पीना चाहिए तथा फ्रिज का ठंडा पानी गर्म भोजन करते समय बिलकुल न पियें | भोजन और पानी में डेढ़ घंटे का अंतर रखें |
११- खुले स्थान पर  रखे भोजन अथवा बासी भोजन भी नहीं  करना चाहिए | मौसम के अनुकूल सब्जी और फलों का सेवन करें  |
१२ - भोजन करते समय उत्तेजक पदार्थ जैसे शराब, चाय, काफी आदि का प्रयोग  नहीं करना चाहिए | 
१३- भोजन के आठ घंटे बाद ही पुनः भोजन करना चाहिए तथा एक निश्चित समय पर ही भोजन करना चाहिए
१४ -भोजन साफ बर्तनों में मंद आंच पर पकाएं |सब्जियों को काटने के पहले धोएं उनके छिलके अधिक न उतारें अन्यथा लवण व विटामिन नष्ट हो जायेंगे |
१५ -भोजन करने के तुरंत बाद पेशाब करें |कुछ देर वज्रासन में बैठने से पाचन शक्ति बढ़ जाती है |

बन्ध, नाडी एवं चक्र

योगासन एवं प्राणायाम के अभ्यास के लिए बन्धों, नाड़ियों एवं चक्रों का ज्ञान आवश्यक होता है | बन्ध का अभिप्राय है बन्धन, एक साथ मिलाना या पकड़ | यह एक प्रकार की शारीरिक स्थिति है जिसमें शरीर के कुछ अवयव या अंगों को सिकोडा अथवा नियंत्रित किया जाता है | नाड़ी का तात्पर्य शरीर की धमनियों से है जिसमें ऊर्जा प्रवाहित होती है | इसी प्रकार चक्र ऐसे वर्तुल हैं जो शरीर में शरीर -यंत्र के संतुलन पहिये हैं |उपर्युक्त तीनों का विस्तारपूर्वक अध्ययन अलग अलग निम्नवत किया जा सकता है |
बन्ध :--- जिस प्रकार विद्दयुत शक्ति को एक निश्चित स्थान पर ले जाने के लिए ट्रासफार्मर ,कंडक्टर ,फ्यूज ,स्विच और इंसुलेटेड वायर की आवश्यकता होती है उसी प्रकार शरीर में प्राण के संचार हेतु ऊर्जा के अपव्यय को रोकने में बन्ध का उपयोग किया जाता है तथा अन्यत्र हानि पहुंचाए बिना ऊर्जा को यथास्थान ले जाने में बन्ध का उपयोग सावधानीपूर्वक किया जाना आवश्यक भी है |
प्राणायाम के लिए महत्वपूर्ण तीन मुख्य बन्ध हैं :---
[१ ] जालन्धर बन्ध:--- जालन्धर बन्ध में गर्दन और गले को संकुचित किया जाता है और चिबुक को  हंसुली और सीने की हड्डी के ऊपरी सिरे के बीच गड्ढे में टिकाया जाता है | इससे रक्तप्रवाह और प्राण को हृदय ,ग्रीवाग्रंथियों तथा मष्तिष्क सहित सिर तक संचालन में सहयोग प्राप्त होता है  |यदि प्राणायाम जालन्धर बन्ध के बिना किया जाता है तो हृदय ,आँख की पुतलियों के पीछे तथा कान के छिद्रों में अनावश्यक दबाव का अनुभव होता है और सिर चकराने लगता है |अतः यह प्राणायाम की तीनों प्रक्रियाओं यथा पूरक [श्वास लेना ],रेचक [श्वास छोड़ना ]और कुम्भक [श्वास रोकना ] में परमावश्यक  हैं |
[२] उड्डियान बन्ध :---उड्डियान बन्ध का अर्थ है ऊपर उड़ना |इस प्रक्रिया में उर प्राचीर को ऊपर वक्षस्थल की ओर उठाया जाता है और अधोउदरीय अवयवों को मेरुदंड की ओर उठाया जाता है |यह रेचक के बाद एक मात्र बाह्य कुम्भक में करना चाहिए अर्थात पूर्ण उच्छ्वसन और नवीन श्वसन के बीच के समय में जब श्वासोच्छ्वास क्रिया रुकी रहती है |अंतर्कुम्भक के समय अर्थात पूर्ण श्वसन और उच्छ्वसन प्रारम्भ करने के बीच के समय जब श्वास रुका रहता है ,उड्डियान बन्ध कदापि नहीं करना चाहिए अन्यथा यह हृदय और उर प्राचीर पर अनावश्यक दबाव डालेगा |
[३ ] मूलबन्ध :---मूल का अर्थ  जड़, श्रोत, प्रारम्भ या बुनियाद है | मूल बन्ध गुदा और अंडकोष की थैली के बीच का भाग है |इस जगह के सिकुड़ने से नीचे की ओर गतिशील अपानवायु हृदयस्थ प्राणवायु के साथ गतिशील होता है |मूल बन्ध पहले अंतर्कुम्भक  में करना चाहिए |नाभि और गुदा के बीच निम्न उदर प्रदेश को रीढ़ की ओर सिकोडा जाता है और उर प्राचीर की ओर खींचा जाता है |उड्डियान बन्ध में गुदा से उर प्राचीर तथा ऊपरी उरोस्थि तक सारा प्रदेश मेरुदंड की ओर पीछे  खींचकर ऊपर उठाया जाता है परन्तु मूलबन्ध में गुदा और नाभि के मध्य का सारा निम्न उदर भाग को सिकोडा जाता है ,मेरुदंड की ओर खींचा जाता है और उर प्राचीर की ओर ऊपर उठाया जाता है |
नाडी :---मनुष्य का शरीर स्वयं में विश्व का एक लघु रूप है |वैसे तो  शरीर में ७२००० नाड़ियाँ हैं किन्तु सुषुम्णा ,पिंगला और इडा तीन मुख्य नाड़ियाँ हैं जिनमें इड़ा और पिंगला क्रमशः सूर्य और चन्द्र का प्रतिनिधित्व करती हैं | पिंगला शरीर के दाहिने और इडा शरीर के बाएं भाग से होकर बहती है |यह क्रमशः दाहिने और बाएं नासिकारन्ध्र से प्रारम्भ होकर नीचे मेरुदंड की ओर जाती है | हमारी श्वास क्रिया इन्हीं दोनों के माध्यम से सम्पन्न होती है। इस प्रकार पिंगला सूर्य नाडी और इडा चन्द्र नाडी कही जाती है |प्रत्येक नाड़ी में में श्वास चलाने का समय दो घण्टे चौबीस मिनट है।एक के बाद दूसरी नाड़ी उतने ही ही समय तक चलती है। इन दोनों के मध्य सुषुम्ना नाडी है जिसे अग्निनाड़ी भी कहा जाता है |सुषुम्ना नाडी जीवन ऊर्जा के बहने का मुख्य मार्ग है और यह मेरुदंड या रीढ़ में स्थित होती है| पिंगला और इडा एक दूसरे से होकर गुजरती हैं और सुषुम्ना भी अनेकों स्थानों पर उनसे होकर गुजरती है | इनके संगम स्थल ही चक्र या पहिये कहलाते हैं |रात और दिन के सन्धिकाल में श्वास सम हो जाती है और श्वास दोनों छिद्रों से चलने लगती है। इसी समय सुषुम्ना नाड़ी प्राण संचालित होता है। इस नाड़ी में श्वास को यदि निरन्तर चलाया जाये और और प्राणायाम द्वारा उस पर नियंत्रण किया जाये तो सुप्त कुंडलिनी स्वतः जागृत हो जाती है। इड़ा और पिंगला की चक्र गति से शरीर में में चक्रों का निर्माण  होता है। 
चक्र :--- इड़ा और पिंगला नाड़ियों की वकगति से चक्रों का निर्माण होता है। मनुष्य के शरीर में कुल सात चक्र होते हैं |ये चक्र शक्तियों के केंद्र होते हैं जिनका भेदन करने पर योगी को विभिन्न प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं। शरीर में स्थित मुख्य चक्र एवम उनके प्रभाव निम्नवत हैं। 
मूलाधार चक्र :-यह रीढ़ की हड्डी के निचले छोर से थोडा बाहर की ओर शरीर के निचले भाग में गुदा और लिंग के मध्य चार पंखुड़ियों वाला  यह चक्र स्थित होता है |मनुष्य की चेतना यहीं  स्थि रहती है और अंत में शरीर छोड़ने पर यहीं से समाप्त हो जाती है। यह चक्र निष्कपटता तथा विवेक के देवता श्री गणेश जी द्वारा  संरक्षित व संचालित होता है |कुंडलिनी शक्ति का मूल स्थान मूलाधार चक्र है। मनुष्य तबतक पशुवत है जबतक वह इस चक्र में जीवित रहता है। इसीलिए सम्भोग एवम निद्रा आदि पर नियंत्रण रखते हुए इस चक्र पर ध्यान को केंद्रित करना पड़ता है तभी यह चक्र जागृत हो पाता है। यम और नियम का पालन करते के साक्षी भाव में स्थिर रहकर भी इसे जागृत किया जा सकता है। इसके जागृत होने पर मनुष्य के अंदर वीरता,तेजस्विता और आनंद का संचार होता है। 
स्वाधिष्ठान चक्र :--मूलाधार चक्र जननेंद्रिय  के थोडा ऊपर रीढ़ पर ही यह भी स्थित है |इसकी छह पँखुरियाँ होती हैं यदि मनुष्य की ऊर्जा इस चक्र पर एकत्रित है तो वह आमोद प्रमोद,मनोरंजन,मौजमस्ती लेने वाला। इसकी संरक्षिका माँ सरस्वती व ब्रह्मदेव हैं | यह सौन्दर्यबोध को विकसित करता है |
मणिपुर चक्र :--यह चक्र ह्रदय और नाभि के मध्य उनके ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी पर स्थित होता है | यह रक्तवर्ण का होता है और दस पंखुरियों से युक्त माना जाता है। यदि मनुष्य की चेतना इस चक्र पर एकत्रित हो जाती है तो वह कर्म प्रधान प्रवृत्ति का होता हैजिसे कर्मयोगी कहा  जाता है। इसके अधिष्ठाता श्री विष्णु व लक्ष्मी हैं |
ह्रदय चक्र :--इसे अनाहत चक्र भी कहते हैं जो ह्रदय के ठीक पीछे  स्थित होता है | हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुरियों से यह युक्त होता है।यदि ऊर्जा इस चक्र में एकत्रित होती है तो व्यक्ति सृजनशील होता है। इसके अधिष्ठाता महादेव एवं शक्ति प्रदायिनी  माँ  जगदम्बा हैं |
विशुद्धि चक्र :-सोलह पंखुरियों वाला यह चक्र कंठ भाग में स्थित होता है तथा इसे सरस्वती का स्थान माना जाता है। यह शरीर में फिल्टर के रूप में जाना जाता है |यह अति सम्वेदनशील चक्र वाह्य जीवाणुओं से शरीर की रक्षा करता है क्योंकि यह अन्न प्रणाली प्रदेश में स्थित होता है|इसके जागृत होने पर मनुष्य साधक अथवा त्रिकालज्ञ कहलाता है। 
आज्ञा चक्र :---शरीर के ऊपरी भाग में दोनों भौहों के मध्य चन्दन लगाने वाले स्थान पर यह स्थित होता है |इस  यदि ऊर्जा एकत्रित  जाये तो व्यक्ति कुशाग्र बुद्धिवाला माना जाता है। भृकुटी के मध्य ध्यान को केंद्रित करके साक्षी भाव में स्थित  यह चक्र जागृत होता है। इस स्थल पर अपार सिद्धियां एवम शक्तियां निवास करती हैं। 
सहस्त्रार चक्र :--मनुष्य के मष्तिष्क की खोह में स्थित यह  चक्र सहस्त्र दलों के कमल के रूप में जाना जाता है |यदि मनुष्य यम,नियम का सम्यक पालन करते हुए इस चक्र तक पहुँच जाता है तो वह परमानन्द की प्राप्ति कर लेता है। ऐसे व्यक्ति को सांसारिक वस्तुओं से कोई मतलब नहीं होता है और जीवनमुक्ति  का अधिकारी बन जाता है। यहांतक मूलाधार चक्र से चलकर क्रमशः पहुंचा जा सकता है। 

Wednesday 26 October 2011

शंख प्रक्षालन

शंख प्रक्षालन अथवा वारिसार धौति एक प्रकार की शरीर की शुद्धि क्रिया है जिससे शरीर के कषाय कल्मष को साफ करके आँतों को उनके स्वाभाविक रूप में कार्य करने का अवसर मिलता है |शंख का अर्थ है पेट अथवा आंतें तथा प्रक्षालन का अर्थ है धोना | इस क्रिया में कंठ से गुदा तक की शुद्धि होती है और विषैले तत्वों का निष्कासन हो जाता है |  यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण क्रिया है जिससे भोजन ले जाने वाली नली और अंतड़ियों की सफाई हो जाती है और भोजन का एक कण भी अंतड़ियों में नहीं रह जाता है  | अतः इस क्रिया द्वारा पेट की सफाई की जाती  है | यह एक लम्बी प्रक्रिया है, ऐसी स्थिति में किसी योग्य शिक्षक की देख रेख में ही इसे करना चाहिए |शंख प्रक्षालन से पेट के रोग ,गर्मी से होने वाले रोग ,फेफड़े ,पित्त कफ के रोग ,सर्दी- जुकाम ,सिरदर्द व नेत्र सम्बन्धी विकार दूर करने में सहायता मिलती है |
शंख प्रक्षालन की विधि :--पानी को खूब उबालकर उसे हल्का ठंडा[गुनगुना ] कर लें और उसमें थोडा सा नमक मिला दें | ढीले  कपड़े पहनें और  पानी को अपने पास में ही  रखें |  अब उकडू मुकड़ू बैठकर निम्नांकित क्रम से पानी पीकर ताड़ासन करें :---------
 पहली बार :---------  एक गिलास पानी पीकर ५ आसन करें |
दूसरी बार _---------  एक गिलास पानी पीकर ५ आसन करें |
तीसरी  बार :------      एक गिलास पानी पीकर ५ आसन करें |
चौथी बार :---------     एक गिलास पानी पीकर ५ आसन करें |
पांचवी बार :--------    एक गिलास पानी पीकर ५ आसन करें |
अब ६ गिलास पानी पीकर शौच के लिए जाएँ |एक पिचकारी निकाल कर वापस आ जाएँ |इस प्रकार एक एक करके १६ से २० गिलास पानी पीने तक हर बार ५ -५ आसन करें और शौच के लिए जाते रहें |इस क्रिया में पहले मल निकलता है और फिर मल के साथ मिला हुआ पानी निकलता है तत्पश्चात गंदा व बदबूदार पानी निकलता है जिसमें टुकड़े के रूप में मल निकलना आरम्भ होता है |जब साफ पानी निकलने लगे तब इस क्रिया को बंद कर देनी चाहिए |इस क्रिया के बाद कुंजल ,रबर नेति तथा भ्रश्त्रिका प्राणायाम करनी चाहिए |तत्पश्चात ३० मिनट तक शव आसन करने के बाद मूंग की दाल  और पुराने  चावल की खूब पकी हुई पतली  खिचड़ी जिसमें १०० ग्राम घी पड़ा हो ,का सेवन करें |यहाँ पर घी का  विशेष महत्व है खिचड़ी का कम क्योंकि १०० ग्राम घी से आँतों की दीवार पर उसका लेप लग जाता है जिससे पित्त आँतों को किसी प्रकार की हानि  नहीं पहुंचा पायेगा |यह भी ध्यान रहे कि खिचड़ी में नमक बहुत कम होना चाहिए |
आवश्यक निर्देश :----
{१ }-१०० ग्राम घी के साथ  खिचड़ी  अनिवार्य रूप से खाना है |
{२}तीन घंटे तक पानी बिलकुल नहीं पीना है उसके बाद गुनगुना पानी पियें |
{३}तीन घंटे तक सोयें नहीं |
{४ }उस दिन शाम को भी भोजन में घी सहित खिचड़ी ही  खाएं |
{५ }अगले दो दिनों में सादा और सुपाच्य भोजन ही करें |
{६}दूध,दही या उससे बनने वाले खाने ,मिर्च-मशाले व आचार का उपभोग तीन दिन तक नहीं करना चाहिए |
{७ }शंख प्रक्षालन के पूर्व रात में हल्का खाना ही खाएं |शंख प्रक्षालन वर्ष में दो बार सितम्बर -अक्टूबर और मार्च -अप्रैल के दौरान ही करें |
{८  }इस क्रिया को करते समय ढीले कपड़े ही पहनें |
{९  }इस क्रिया के बाद मेहनत के कार्य कदापि न करें |
शंख प्रक्षालन के आसन:--
   -  खड़े होकर ताड़ासन ४ बार करें|
    २ - तिर्यक ताड़ासन ४ बार दांयीं और ४ बार बायीं ओर करें |
    ३  - फिर तिर्यक भुजंगासन जिसमें  ४ बार दायें और ४ बार बाएं के बल गर्दन को घुमाएँ |
     ४  -कटिचक्रासन  में खड़े  होकर ४ बार दायें और ४ बार बाएं |
     ५  -अंत में कर्ण आसन ४ बार दायें और ४ बार बाएं |
शंख प्रक्षालन से लाभ :---
१-यह क्रिया आदतन अथवा स्थायी कब्जियत और वायु प्रकोप दूर करती है |
२- यदि इस पद्धति से समय समय पर पेट की सफाई की जाये तो मधुमेह पर नियंत्रण किया जा सकता है |
३- यह क्रिया पाचन प्रक्रिया को सक्रिय बनाती है ,तीखापन दूर करती है और रक्त को साफ करती है |
४- पुराना आंव ,बदहजमी ,विषाक्त तत्व और ऐसी बीमारियाँ जो रक्त के अशुद्ध होने से पैदा होती हैं ,इस क्रिया से दूर हो जाती हैं |
शंख प्रक्षालन से शरीर हल्का हो जाता है और मानसिक प्रसन्नता स्थायित्व ग्रहण कर लेती है |

योगासन में सावधानियां

महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में योगासन को परिभाषित करते हुए कहा है कि" स्थिरं  सुखम आसनम" अर्थात सुखपूर्वक स्थिर होकर बैठने की स्थिति को ही आसन कहा जाता है। जिस प्रकार से सुदृढ़ नींव के बिना कोई इमारत अधिक दिनों तक खड़ी नहीं रह सकती ठीक उसी प्रकार आचरण एवं  व्यवहार में यम एवं नियम के तत्वों के अभ्यास के बिना मनुष्य का शरीर सुदृढ़ ,स्वस्थ एवं दीर्घजीवी नहीं हो सकता | अतः साधक से अनुशासन ,आत्मविश्वास और निरंतर नियमित रूप से अभ्यास करते रहने की अपेक्षा की जाती है |आसन के लिए निम्नांकित तथ्यों को ध्यान में रखना आवश्यक है :-
आहार- विहार ----आसनों के अभ्यास के पूर्व मूत्राशय पूर्णतया रिक्त होना चाहिए और आंतें भी खाली होनी चाहिए अर्थात मलमूत्र त्याग करके ही आसन प्रारम्भ करना चाहिए |यदि कभी ऐसी स्थिति सम्भव न हो तो आसनों का प्रारम्भ शीर्षासन एवं सर्वानगसम आसन से  करना चाहिए | आँतों को रिक्त व शिथिल किये बिना कठिन प्रकृति के आसनों का अभ्यास सर्वथा वर्जित है |आसनों के पूर्व स्नान यथासम्भव कर लेना चाहिए और आसन के कम से कम आधे घंटे बाद ही आसन करना चाहिए | खाली पेट का तात्पर्य भोजन करने के कम से कम ६ घंटे पश्चात से है |यदि इसमें कोई कठिनाई हो तो आसन के १५ मिनट पूर्व एक प्याली चाय ,अमृतपेय अथवा एक  गिलास दूध लिया जा सकता है |आसन करने के एक घंटे पश्चात स्वल्पाहार अथवा भोजन किया जा सकता है |आसन करते समय यदि किसी अंग विशेष में खिंचाव अथवा तनाव महशूस  हो तो ऐसी स्थिति में वह आसन कदापि न करें और शवासन में शरीर को शिथिल करके थोडा विश्राम कर लें |आसन करते समय किसी से प्रतिस्पर्धा कदापि न करें बल्कि अपनी सामर्थ्य में ही आसन करने का प्रयास करे |
स्थान एवं समय ----
आसन के लिए स्थान साफ, सुथरा एवं एकान्त  होना  चाहिए क्योंकि स्वच्छ व  प्रदूषणमुक्त स्थान से एकाग्रता बनी रहती है तथा किसी प्रकार के रोग के आक्रमण की सम्भवना नहीं रहती है| |सर्वाधिक लाभकारी स्थान कोई पार्क अथवा छत माना जाता है |यदि यह सम्भव न हो तो हवादार कक्ष पर्याप्त होगा |ध्वनि प्रदूषण से आसन क्रिया  में बाधा उत्पन्न हो सकता है | अतः हरे भरे मैदान अथवा  पार्क  में आसन करना अधिक उपयुक्त होगा |  आसनों के अभ्यास के लिए सूर्योदय के पूर्व अथवा सूर्यास्त के पश्चात का समय अधिक  उपयुक्त होता है |प्रातः काल की अपेक्षा सायंकाल में शरीर सरलता से गतिशील रहता है और आसन बड़ी सरलता से किया जा सकता है |प्रातःकाल का अभ्यास व्यक्ति को अपने व्यवसाय के लिए अधिक तत्पर बनाता है वहीं सायंकाल का अभ्यास दिनभर की शरीर की थकावट को दूर करके व्यक्ति को प्रफुल्लित एवं शान्त बनाता है |यदि प्रातःकाल  एवं सांयकाल दोनों समय आसन करने का दृढ निश्चय हो सके तो प्रातःकाल कठिन  प्रकृति के आसन और सांयकाल सरल एवं सहायक आसन करना चाहिए |कई घंटे कड़ी धूप में रहने अथवा कठिन परिश्रम के ठीक पश्चात आसन कभी भी नहीं करना चाहिए बल्कि थोडा विश्राम करने के पश्चात ही आसन करना चाहिए |
अन्य सावधानियां-------
आसनों के अभ्यास के पूर्व श्वासोच्छ्वास क्रिया के अंतर्गत दो चार बार लम्बी गहरी साँस लेकर अंत में दबाव डालकर साँस को पूरी तरह बाहर निकाल देना चाहिए तथा चेहरे पर प्रसन्नता के भाव लाते हुए आसन का शुभारम्भ करना चाहिए |श्वास क्रिया केवल नासिका से ही करनी चाहिए |आसन की प्रक्रिया अथवा उसकी स्थिति विशेष में होने पर श्वास को सहज रूप से आने जाने देना चाहिए और आसनों का अभ्यास करते समय केवल शरीर को ही सक्रिय रखना चाहिए जबकि मष्तिष्क को निष्क्रिय किन्तु सतर्क व सजग रखना चाहिए | यदि मष्तिष्क पर तनाव देकर आसन किया जाता है तो  आप अपनी गलतियों को सुधारनें में सर्वथा असमर्थ होंगे |आसन हमेशा दोनों आँखें बंद करके ही करना चाहिए ताकि एकाग्रता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़ सके| क्षयरोग , रक्तचाप ,सिरदर्द तथा हृदयरोग से पीड़ित साधक को शीर्षासन एवं सर्वानगसम आसन करने के पूर्व पश्चिमोत्तानासन ,उत्तानोत्पाद  आसन,सर्पासन नावासन आदि आसनों का अभ्यास करना चाहिए |पीछे की ओर झुकने वाले आसन अधिक करना चाहिए ताकि हमारे शरीर का संतुलन हमेशा बना रहे |सर्वाइकल से पीड़ित व्यक्ति को आगे की ओर झुकने वाले आसन कदापि नहीं करने चाहिए | महिलाओं को मासिक ऋतुश्राव के समय आसन नही करने चाहिए बल्कि सहायक आसन के साथ प्राणायाम ही लाभकारी होगा |गर्भावस्था के प्रथम तीन माह में सरल आसन किये जा सकते है किन्तु आगे झुकने वाले आसन नहीं करने चाहिए |गर्भावस्था के पूर्ण काल में बिना कुम्भक के प्राणायाम का अभ्यास किया जा सकता है |आसन हमेशा प्रबुद्ध एवं कुशल मार्गदर्शक के निर्देशन में ही करें अन्यथा गलत आसनों के कारण स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है |आसन की निर्दिष्ट प्रक्रिया के अनुसरण से मन प्रफुल्लित ,शरीर हल्का एवं चित्त शान्त हो जाता है तथा शरीर मन और आत्मा की एकरूपता का सहज अनुभव होने लगता है | आसन क्रिया में निरन्तरता का महत्वपूर्ण स्थान होता है क्योंकि निरन्तरता से साधक के दृष्टिकोण में सहज परिवर्तन होने लगता है जिससे वह अपने को आहार ,विहार ,कामवासना ,स्वच्छता और शील के सम्बन्ध में आत्मानुशासन द्वारा हमेशा एक नये जीवन का अनुभव करता है |        


Sunday 16 October 2011

शवासन

शव का अभिप्राय है मृत अथवा मुर्दा | इस आसन में शव की यथास्थिति का अनुकरण करते हुए इसकी मूल भावना में प्रवेश करना होता है | प्राण निकलने के पश्चात जैसे शरीर निष्क्रिय हो जाता है और तब उसमें किसी प्रकार की गति या हलचल  सम्भव नहीं हो पाती है,ठीक यही स्थिति बनाने के लिए कुछ समय के लिए शरीर को निष्क्रिय रखकर मन को अविचल रखना होता है |यह एक प्रकार से पूर्ण आराम की स्थिति है |यह सचेत विश्राम मन और शरीर दोनों  को सशक्त और प्रफुल्लित करता है | इसमें शरीर की अपेक्षा मन को अधिक  स्थिर रखना होता है | इसलिए आसान सा  दिखने वाला यह आसन वास्तव में बहुत ही कठिन आसन है जिसकी निरंतर साधना करते हुए साधक अपनी शरीर को पूर्ण विश्राम दे पाता है |प्रत्येक  आसन के बाद शवासन  अवश्य करना चाहिए | जब कभी आप काम करते थक जाएँ ,बाहर से थके हुए आयें ,मन किसी भी समस्या से अशांत हो तो पांच मिनट तक शवासन करने से अपूर्व  शांति मिल जाएगी |
विधि :--
१- शव के समान पीठ के बल पूरी लम्बाई में लेट जाएँ और अपनी हथेलियाँ अपने दोनों हाथ जंघाओं से कुछ दूर ऊपर की ओर  अधखुली रखकर आसन पर  रखें |अपने को दैनिक जीवन की समस्याओं से पूर्णतयः अलग करें  और मंद गति से आती जाती अपनी श्वास पर ध्यान केन्द्रित करें |
२- शवासन के समय अपनी दोनों आँखें पूर्णतयः बंद रखें तथा  एडियों पर पंजे को दायें व बाएं गिरा दें तथा शरीर के सभी अंगों को बिलकुल शिथिल कर दें और मानसिक रूप से अपने शरीर को हल्का मह्शूश करें |
३- आरम्भ में गहरी और लम्बी सांसे लें  और मेरुदंड को बिना हिलाए- डुलाये हल्की और धीमी साँस लेते रहें  | इस दौरान ध्यान अपने शरीर पर केन्द्रित रखें |श्वास प्रक्रिया को मानसिक दृष्टि से सावधानीपूर्वक देखें अथवा महशूस करें  |
४- गहरी और धीमी सांसे लेते समय अपना ध्यान उन पर ही केन्द्रित रखें तथा सांसो में क्रमशः सहजता लायें और थोड़ी देर बाद अपनी श्वासों से ध्यान हटाकर शरीर के अंगों पर ध्यान केन्द्रित करें |
५- अपने जबड़े को ढीला रखें तथा शरीर के प्रत्येक अंग प्रत्यंग को शिथिल छोड़ दें |पूर्ण विश्राम की स्थिति में धीरे धीरे श्वसन क्रिया को जारी रखें | यदि शरीर के किसी अंग में तनाव या  खिंचाव मह्शूश हो तो उस अंग को दायें बाएं हिलाकर शिथिल कर लें | इस दौरान अपने आप  को अशरीरी मह्शूश करें |
६- यदि मन में किसी प्रकार के अन्य भाव आ रहें हैं तो उन्हें आने दें लेकिन उनमें ठहराव न आने पाए |
७- इस स्थिति में कम से कम १५-२० मिनट तक रहें |
८- शवासन के आरम्भ में नींद आने की सम्भावना रहती है किन्तु प्रयास करके ऐसी स्थिति न आने दें |
९-शवासन के दौरान आनन्द  की अनुभूति करें एवं शरीर को निष्क्रिय मह्शूश करें |पूर्ण विश्राम की स्थिति में मष्तिष्क के पृष्ठ भाग से एडी की ओर शक्ति के प्रवाह का अनुभव किया जा सकता है |
१० - शवासन मुख्यतः शरीर के समस्त अंगों के शिथिलीकरण का आसन है किन्तु यह मानसिक शांति भी प्रदान करता है /
परिणाम :--
 हठयोग प्रदीपिका के प्रथम अध्याय के ३२ वे श्लोक में कहा गया है कि--पीठ के बल जमीन पर शव की तरह पूरी लम्बाई में लेटना ही शवासन कहलाता है |यह आसन अन्य आसनों के पश्चात शरीर को आराम देने के लिए भी किया जा सकता है क्योंकि यह शरीर की थकावट को दूर करने में सहायक होता है और मन को अपूर्व शान्ति प्रदान करता है | यह स्नायु व्यवस्था को नियंत्रित करता है | हठयोग प्रदीपिका के अध्याय ४, श्लोक २९ तथा ३० में कहा गया है कि मन इन्द्रियों का राजा है ;प्राण मन का राजा है |जब मन विलीन होता है तो वह मोक्ष कहलाता है ;जब प्राण और मनस [मन ]विलीन होते हैं तब अनिर्वचनीय आनद उद्भूत होता है |शवासन रक्तचाप और ह्रदय रोग को दूर  करने में काफी सहायक होता है | जब कभी चिंता,दबाव अथवा अनिद्रा से पीड़ित हों तब इसका अभ्यास अवश्य करना चाहिए |
हमारे शरीर में प्राण- पोषण पूर्णतयः नाड़ियों पर निर्भर है | जब शरीर अस्थिर होता है तब मंद तथा गहरी श्वास क्रिया नाड़ियों की  थकान को कम करती हैं तथा मन को शांति प्रदान करती हैं |आजकल की दौड़धूप की जिन्दगी में नाड़ियों पर अनावश्यक भार बना रहता है जिसके लिए शवासन सर्वोत्तम औषधि के रूप में हमें राहत प्रदान कर सकता है | शवासन द्वारा ही योगनिद्रा क्रिया सम्पन्न की जाती है |योगनिद्रा द्वारा शरीर को पूर्ण आराम प्राप्त होता है | इस आसन को नियमित रूप से करने से उच्च रक्त चाप नियंत्रित रहता है /

प्राणायाम [सावधानियां और दक्षता ]

 प्राणायाम सामान्यतः सांसों के नियन्त्रण की एक तकनीकी कला है। प्राणायाम प्राण एवं आयाम दो शब्दों से बना है। प्राण का अर्थ जीवन ऊर्जा और आयाम का अर्थ विस्तार। प्राणायाम के अंतर्गत  पूरक, रेचक, अन्तर्कुम्भक  एवं बहिर्कुम्भक चार प्रमुख सोपान वर्णित हैं। प्राणायाम की शिक्षा एवं प्रगति के लिए साधक की पात्रता अनुभवी शिक्षक द्वारा प्रमाणित होनी चाहिए और इसकी शिक्षा के लिए आसनों पर अधिकार और उनसे प्राप्त शक्ति तथा अनुशासन की आवश्यकता होती है |
प्राणायाम के लिए स्वच्छता तथा भोजन में निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक है ;
१ -जिस प्रकार अशुद्ध मन और शरीर से मन्दिर में प्रवेश वर्जित है उसी प्रकार योगी को अपने शरीर- मन्दिर में प्रवेश करने के पूर्व स्वच्छता के नियमों पर विशेष ध्यान देना चाहिए |
२ -प्राणायाम का अभ्यास प्रारम्भ करने के पूर्व अंतड़ियों को खाली  और मूत्राशय को रिक्त कर देना चाहिए |
३ -यथासम्भव खाली पेट अथवा  भोजन के कम से कम छः घंटे बाद ही प्राणायाम  का अभ्यास करना चाहिए | 
४ -प्राणायाम का अभ्यास समाप्त करने के आधे घंटे बाद हल्का भोजन या नाश्ता किया जा सकता है |
समय और स्थान  :-प्राणायाम के लिए उत्तम समय सूर्योदय से पूर्व और सूर्योदय के पश्चात का समय उपयुक्त होता है | प्राणायाम स्वच्छ ,हवादार और कीड़े मकोडो से रहित स्थान में किया जाना चाहिए तथा  कोलाहलपूर्ण स्थान से दूर |प्राणायाम का अभ्यास संकल्प और नियमितता के साथ यथासम्भव एक ही समय और स्थान पर एक ही स्थिति में करना चाहिए |
स्थिति :-१ - शीतली प्राणायाम को छोड़कर शेष के अभ्यास  में श्वसन क्रिया केवल नाक से ही  करनी चाहिए |
२ -भूमि पर कम्बल या चटाई बिछाकर पद्मासन अथवा सिद्धासन पर बैठना चाहिए |
३ -प्राणायाम करते समय गर्दन और रीढ़ बिलकुल सीधी रखनी चाहिए |
४ -प्राणायाम करते समय मुख के स्नायुओं ,आँखों और कानों एवं गर्दन की मांसपेशियों ,कंधों ,बाँहों जांघों और पैरों में तनाव का अनुभव नहीं होना चाहिए |
५ -प्राणायाम करते समय ऑंखें पूर्णतयः बंद रखनी चाहिए अन्यथा मन बाहरी विषयों में भटक कर विक्षिप्त हो सकता है |कानों के आंतरिक भाग पर किसी प्रकार का तनाव महशूस नहीं होना चाहिए |
६ -प्राणायाम करते समय दायीं बांह कुहनी पर मुड़ी होती है और श्वास की समान गति बनाये रखने के लिए हाथ नासिका पर रखा जाता है |तर्जनी और कनिष्ठिका के अग्र भागों से पहले  बायीं नासिका को नियंत्रित करते हैं और क्रमशः अंगूठे के सिरे से दायीं नासिका को |
७ -प्राणायाम करते समय अपनी स्थिति और  श्वासों पर ध्यान केन्द्रित रखते  हुए अपने प्राणों के अजश्र प्रवाह के प्रति सचेत एवं सतर्क रहना  चाहिए |
८ -प्राणायाम के तत्काल बाद आसन नहीं करना चाहिए बल्कि एक घंटे का अन्तराल रखना चाहिए |इसका कारण यह है कि जो अवयव प्राणायाम में शांत और स्थिर हो जाते हैं वे आसनों से होने वाली हलचल से अस्तव्यस्त हो सकते  हैं | अच्छा होगा कि आसनों के अभ्यास के १५ मिनट पश्चात प्राणायाम किया जाये | 
९ -कठिन आसनों से शरीर में थकावट आ जाती है ,अतः ऐसी स्थिति में प्राणायाम नहीं करना चाहिए |
१० -पूरक और रेचक में सम अनुपात रखने की कोशिश करनी चाहिए अर्थात यदि एक क्रिया एक मिनट में की गयी है तो दूसरी क्रिया भी एक मिनट में ही करनी चाहिए |
११ -प्राणायाम का प्रत्येक अभ्यास पूर्ण करने के पश्चात हमेशा ५-१० मिनट शवासन में लेट जाना चाहिए |शवासन में मन पूर्णतयः निश्चल और सभी अवयव तथा ज्ञानेन्द्रियाँ निष्क्रिय होनी चाहिए ताकि शरीर और मन दोनों प्रफुल्लित रहें |
१२  -प्राणायाम करते समय साधक को अपनी सामर्थ्य की सीमा का ज्ञान अवश्य होना चाहिए और कभी भी उससे बढ़कर अभ्यास नहीं करना चाहिए |

Sunday 9 October 2011

योग से तनाव मुक्ति

यौगिक दृष्टि से शरीर और मन के साथ साथ भावना एक दूसरे से इस प्रकार अविभक्त होती हैं कि वे कोशिश करने के बावजूद भी अलग  नहीं की जा सकती हैं |मन केवल मष्तिष्क को सोचने का प्रेरक ही नहीं अपितु वह बुद्धिपुंज भी है जो शरीर के अंग प्रत्यंग और सूक्ष्मतम भागों को भी संचालित करता है |शरीर को प्रभावित करने वाली प्रत्येक वस्तु या प्रक्रिया का प्रभाव मन पर अवश्य पड़ता है और मन का शरीर पर |चूंकि मन सम्पूर्ण शरीर में अंतर्व्याप्त है और उसके प्रत्येक अणु में  प्रविष्टि है ,इसलिए यौगिक क्रियाओं का जिन्हें हम योगासन कहते हैं ,मन और भावनाओं पर भी उतना ही प्रभाव डालती हैं |यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि स्वाभाविक शान्ति एवं विश्राम तथा मन और भावनाओं की  स्थिरता प्रदान करने में साधारण योग और सामान्यतः  ध्यान जितना प्रभावी है उतना कोई अन्य नहीं | इस पद्धति की  यह विशेषता है कि कुछ ही मिनटों में किये गये आसनों व प्राणायामों के अभ्यास के पश्चात स्वयमेव आनंद की  अनुभूति होने लगती है |
अनिद्रा एक ऐसी सामान्य बीमारी है जिससे अनेकों व्यक्ति पीड़ित हैं |जब किन्हीं कारणों से नींद नहीं आती है तब अनिद्रा के विषय में चिंतन करना  स्वाभाविक हो जाता है क्योंकि अनिद्रा के दुष्प्रभाव से हम भलीभांति परिचित हैं |अनिद्रा के सम्बन्ध में ज्यों ज्यों हम चिन्ता करते हैं त्यों त्यों उसकी गम्भीरता भी बढती जाती है |जो लोग रात में नींद की  गोलियों का सेवन करते हैं उन्हें मालुम है कि यह उनके स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है फिर भी तात्कालिक लाभ को वे नजरंदाज नहीं कर पाते हैं |
तनाव मन की वह स्थिति है जिसमें मनुष्य एक प्रकार के मानसिक बोझ से दबाव महशूस करता है और निरंतर अन्तर्द्वन्द में रहता है |विज्ञानं भी इस तथ्य को मानने लगा है कि तनाव से शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार की बीमारियाँ पैदा होती हैं |तनाव के लक्षण मनुष्य के कार्य व्यवहार से स्पष्ट होने लगते हैं जब वह  बात बात पर भडक उठता है और उसके चेहरे की मुस्कराहट गायब हो जाती है |
योग से तनाव का उपचार सम्भव है | प्राणायाम  में लम्बी गहरी साँस ,शीतली प्राणायाम ,लोम अनुलोम ,कपालभाति,उज्जायी ,भ्रामरी आदि प्राणायाम मन के तनाव को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं |इसी प्रकार ध्यान जो मन का स्नान माना जाता है ,भी तनाव मुक्ति का अचूक साधन है | प्रातःकाल १५-३० मिनट ध्यान करने से तनाव स्वतः दूर हो जाता है | योगनिद्रा द्वारा लम्बे समय से तनावग्रस्त व्यक्तियों का सहज उपचार सम्भव हो जाता है क्योंकि उनके अवचेतन मन की ग्रन्थियों को योगनिद्रा द्वारा खोल दिया जाता है  |  कुछ तनाव से ग्रस्त महिलाओं पर शशांक आसन और ॐ की सस्वर ध्वनि  का जादुई असर भी देखा गया है | शवासन  भी तनाव दूर करने में प्रभावी माना गया है |
योग की अनेकों ऐसी क्रियाएं हैं जैसे -ताडासन,भुजंगासन व गर्दन के अन्य आसन ,भ्रश्त्रिका व नाड़ीशोधन प्राणायाम जो विश्रामपूर्ण नींद लाने में सहायक होते हैं |ये सभी अंगों के फैलाव की सहज व सरल क्रियाएं मात्र हैं जिससे तनाव स्वतः दूर हो जाता है |अतः शरीर के उन प्रमुख अंगों जहाँ तनाव ,कड़ापन, जकडन महशूस होता हो उन्हें रात में विश्राम के पूर्व फैलाव के आसन अवश्य करना चाहिए |यह हमेशा याद रखना चाहिए कि तनाव और विषाद  की घनीभूत पीड़ा को झेलकर अथवा उस पीड़ा से गुजरकर जब उस पार जाते हैं तो एक दिव्य विश्रांति हमारा इंतजार कर रही होती है |  इसलिए विषाद भी योग का ही एक घटक है और आनन्द का यह प्रारम्भिक  सोपान है |यह सदैव ध्यान रखें कि तनाव जीवन को आगे बढ़ाने या ऊपर उठने में सहायक है लेकिन अनियंत्रित तनाव केवल समस्याएं पैदा करता है | तनाव से बचने के लिए उठाये गये गलत कदम जैसे कि दवाइंया लेना ,नशा करना ,अधिक खाना आदि तनाव को और अधिक बढ़ाते हैं,कम नहीं करते हैं  |
सामान्यतः  तनाव को नकारात्मक रूप में नहीं लेना चाहिए क्योंकि प्रायः तनाव जीवन में आगे बढने में मदद करता है| अतःतनाव दूर करने के लिए नियमित और क्रमबद्ध तरीके से किये गये योगासन जैसे  अर्धचन्द्रासन ,ताड़ासन ,वज्रासन ,शशांकासन ,भुजंगासन ,शलभासन ,पोदोत्तानासन, पवनमुक्तासन एवं ,मकरासन के पश्चात किये गये प्राणायाम जिसमें गहरे लम्बे सांस ,अनुलोम विलोम ,भ्रामरी एवं शिथिलीकरण की क्रियाएं करनी चाहिए |योगनिद्रा तथा ध्यान भी तनाव दूर करने में सहायक  होते हैं| तनाव दूर करने के लिए हंसी रामबाण सिद्ध हो सकती है क्योंकि शरीर से तनाव व नकारात्मक सोच बढ़ाने वाले तत्व कोर्टीसाल की मात्रा इससे  क्रमशः  कम होती है |सकारात्मक ऊर्जा पैदा करने वाले तत्व सेरोटीन का स्तर भी  बढ़ता है जिससे शरीर को आंतरिक व रोग प्रतिरोधक क्षमता में अतिशय  वृद्धि होती है |तनाव से होने वाले रोगों  में मनोरोग ,हाईब्लडप्रेशर, हाइपरटेंशन, ह्रदयरोग ,अस्थमा ,मधुमेह ,पेप्टिक अल्सर एवं अनिद्रा आदि मुख्य हैं |तनाव से मुक्ति के लिए कुछ बातें जो निम्नवत हैं ,का ध्यान में रखना आवश्यक है ---
१-शरीर के भार  व वजन को क्रमशः कम करें और मेहनत करके पसीना बहायें |
२ -धूम्रपान अथवा नशीली वस्तुओं का परित्याग करें और आशावादी दृष्टिकोण रखें |
३ -नमक व काफी का प्रयोग कम करें  तथा पानी अधिक से अधिक पियें और अजवाइन का भोजन में सेवन करें  |शिथिलीकरण व लम्बे गहरे साँसों का अभ्यास करें |
४ -समय समय पर अपने व्यावसायिक कार्य से छुट्टी रखें तथा सद्साहित्य पढ़ें व  मनोरंजन हेतु कोई  भी कार्य करें |आसन प्राणायाम व ध्यान निरंतर करते रहें तथा  प्रत्येक कार्य ईश्वर के निमित्त करें  |
५ -जीवन में नियमित योग साधना अपनाकर योगमय जीवन व्यतीत करें तथा कोई रचनात्मक कार्य करते रहें तथा अपने मनोबल को हमेशा बढ़ाएं | |         
६ -अहंकारी व्यक्ति दुखी होता है और दूसरों को भी दुखी करता है |ऐसे व्यक्ति के जीवन में तनाव स्थायी रूप ले लेता है |अहंकार से क्रोध व अशांति पैदा होती है ,क्रोध से विवेक नष्ट हो जाता है और वह पाप कर्मों की ओर प्रवृत्त होता है |अतः रोजाना सोने के पूर्व आत्म निरीक्षण  अवश्य करें |
७-जो आपके वश में नहीं है उसके बारे में सोचकर समय नष्ट न करें बल्कि जो वश में है उसे करने में लग जाएँ 
८ -जब तक सफलता नहीं मिल जाती तब तक पूर्ण आत्म विश्वास और धैर्य के साथ निरंतर कार्य करते रहें | 
   इस प्रकार जीवन में सहजता अपनाकर भी हम तनाव की अपेक्षा प्रसन्नता प्रदान करने वाले क्षणों को सदैव  खोजते रहें और आनदमय जीवन व्यतीत करें |

योग एवं जीवन

महर्षि पतंजलि ने योग को चित्तवृत्ति निरोध की संज्ञा देते हुए इसे चेतना की चंचलता का दमन बताया है |योग को एक ऐसी क्रिया माना  है जिससे चंचल मन शांत होता है और शक्ति निर्माण की दिशा में सम्बल प्रदान करता है | कभी कभी मन को नियंत्रित करना सहज नहीं हो पाता जैसाकि भगवद्गीता के छठे अध्याय में अर्जुन- श्रीकृष्ण के सम्वाद से परिलक्षित होता है | अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूंछते हैं --कृष्ण: आपने कहा है कि ब्रह्म [विश्वात्मा ]जो सदा एक है ,से तादात्म्य ही योग है लेकिन जब मन इतना चंचल है और अस्थिर है तब वह शाश्वत कैसे हो सकता है ?इसको तो वश में करना वायु को वश में करना जैसा कठिन लगता है |भगवान कृष्ण उत्तर देते हैं --निःसंदेह मन चंचल है और उसे वश में करना बहुत कठिन है फिर भी उसे निरंतर अभ्यास और वैराग्य द्वारा वश में किया जा सकता है |जिसने अपने आप को संयमित नहीं किया उसके लिए योग को प्राप्त करना बहुत ही  कठिन है किन्तु आत्मसंयमी व्यक्ति इसे अंततः प्राप्त कर लेता है |
मन की  अवस्थाओं का वर्गीकरण पांच वर्गों  में किया गया है --प्रथम क्षिप्त अवस्था जहाँ मानसिक शक्तियां अव्यवस्थित एवं उपेक्षित होकर बिखरी रहती हैं | इसमें रजोगुण की प्रबलता से तन विषयाशक्त हो जाता है |
दूसरा विक्षिप्तावस्था जहाँ मन उत्तेजित एवं व्यग्र होता है |यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति को अपने प्रयत्नों के फल के उपभोग करने की  क्षमता तो है किन्तु वासनाएं व्यवस्थित व नियंत्रित नहीं हो पाती | तीसरी अवस्था  मूढावस्था जहाँ मन निर्बुद्ध ,मंद तथा मूर्ख होता है |इस अवस्था में तमोगुण की  प्रबलता से मन सदैव व्याकुल रहता है |मन की चौथी अवस्था एकाग्रावस्था है जहाँ सत्व गुण प्रबल होने से मन गुप्त रूप से सचेत होता है और मानसिक शक्तियाँ एक विषय वस्तु पर केद्रित हो जाती हैं |पांचवी मानसिक अवस्था को ही निरुद्धावस्था कहा जाता है जहाँ मन, बुद्धि तथा अहंकार तीनों पर नियंत्रण हो जाता है और ये सभी आतंरिक शक्तियाँ परमात्मा को उसके उपयोग तथा उसकी सेवा में समर्पित कर दी जाती हैं |यहाँ मै और मेरा का बोध नहीं रह जाता है |
मानसिक स्वास्थ्य :--जिस व्यक्ति का मन स्वस्थ है उसका मन एकाग्र,प्रसन्न ,विनम्र व शांत रहता है |  मानसिक अस्वस्थता का कारण केवल  मानसिक कल्पनाएँ करना ,जीवन की वास्तविकता को उपेक्षित करना ,इच्छाओं का दमन करना ,स्वार्थी जीवन जीना ,कुकर्मों के कारण चेतना में संकीर्णता ,अपमान, अन्याय ,धोखा मिलना ,नशीले पदार्थों का सेवन करना ,आत्माभिव्यक्ति का अवसर न मिलना ,घर में कलह बने रहना एवं योग्यता अनुसार कार्य न मिलना आदि हैं | अतः मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए निम्नांकित  बातों पर विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है ;----
१- अपने शरीर को योगाभ्यास  द्वारा  स्वस्थ बनाइए और इसके लिए कुंजल ,नेति ,अनिमा ,आसन, शंख- प्रक्षालन  ,प्राणायाम एवं त्राटक क्रियाओं का निरंतर अनुसरण  करें |
२- अचेतन मन के अंदर स्थित विकारों को दूर करने के लिए योगनिद्रा एवं ध्यान का  निरन्तर अभ्यास करें क्योंकि इससे चेतन एवं अवचेतन मन की शुद्धि हो जाती है |
३- शुभ चिन्तन व मनन करें ,सद्ग्रंथों का अध्ययन करके उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें |
४- निष्काम सेवा करें क्योंकि मानसिक शुद्धि व सबलता का यह श्रेष्ठ साधन है जिसके द्वारा अहम पूर्णतयः  नष्ट हो जाता है  | अतः  सप्ताह में कम से कम दो घंटे निःस्वार्थ सेवा अवश्य करें |
५- अपने मन में अभिरुचि पैदा करें क्योंकि रुग्न मन को स्वस्थ रखने एवं स्वस्थ मनोरंजन का यह सर्वोत्तम  साधन है |प्रकृति दर्शन ,खेल, कला,संगीत ,साहित्य -सृजन ,पत्र -लेखन ,आदि रचनात्मक कार्यों में से किसी एक विषय को रूचि के अनुरूप अपनाने में जीवन सार्थक हो जाता है |
६- इन्द्रियों के विषयों से अनासक्ति भाव रखने से जीवन सरल व सरस हो जाता है | इच्छाएं तो हमेशा रहेंगी किन्तु उनमें लगाव न हो यह एक महत्वपूर्ण बात है जिसे हमेशा ध्यान में रखना चाहिए |
७- अपने मन को शिकायत रहित बनाएं क्योंकि मन जब उदार और गम्भीर होता है तब न तो अपने प्रति और न ही  दूसरों के प्रति ही  कोई शिकायत रहती है |
८- जीवन भर प्रसन्नचित रहने का संकल्प कर लें तो जीवन में कभी भी असफलता का सामना नहीं करना पड़ेगा क्योंकि प्रसन्नता के आते ही मानसिक रुग्णता स्वतः समाप्त हो जाती है  | 
ध्यान- योग :---
मन की एकाग्रता एवं ध्यान के बिना मनुष्य किसी भी वस्तु पर नियंत्रण नहीं कर सकता है |विश्व नियंता को ध्यान किये बिना व्यक्ति अपने अंतर के दिव्यात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता | इसलिए साधक को एकाग्रता की प्राप्ति के लिए ॐ पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ता है जो परमात्मा का प्रतीक स्वर भी  है | जीवन में योग साधना का उतना ही महत्व है जितना किसी कार्य के अंत या परिणाम का | पतंजलि ने आत्मा की खोज के लिए योग के आठ अंगों व अवस्थावों को "अष्टांगयोग" के नाम से निम्नवत बताया है ---यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार,धारणा,ध्यान,समाधि | यम और नियम योगी के विकारों एवं भावनाओं   को नियंत्रित करते हैं तथा उन्हें साधकों की भाँति एक निश्चित स्थिति  में लाते हैं |आसन शरीर को स्वस्थ और सुदृढ़ तथा प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण रखता है | प्राणायाम और प्रत्याहार  साधक को श्वासों के संचालन द्वारा मन को नियंत्रित करना सिखाते हैं तथा धारणा, ध्यान और समाधि योगी को उसकी आत्मा के अंतरतम के गहन स्थान तक ले जाती हैं | वह ऐसा बोध जाग्रत करती हैं कि वह उसमें ही हैं जिसे अंतरात्मा के रूप में जाना जाता है |अंतिम तीन अवस्थाएं साधक और साध्य के बीच समस्वरता लाती हैं जिसे स्वानुभूति अथवा आत्मानुभूति भी कहा जाता है |
योग में आसन का महत्व सर्वविदित है | आसन से स्थिरता ,स्वास्थ्य तथा अंगों में हल्कापन आता है |स्थिर और सुखदायी आसन से शारीरिक और मानसिक स्थिति संतुलित हो जाती है |आसन शरीर की बनावट को सुरक्षित रखते हैं जो पुष्ट और मांशपेशियों के गठित हुए बिना भी लचीला रखता है |यह शरीर को सभी प्रकार की बीमारियों से सुरक्षित रखता है |आसनों के करने से योगी सर्वप्रथम स्वास्थ्य लाभ करता है |स्वास्थ्य एक ऐसी पूँजी है जो कठिन श्रम से ही प्राप्त होती है |यह शरीर मन और आत्मा के पूर्ण संतुलन की अवस्था है |योगी आसनों के अभ्यास से शारीरिक असमर्थता और मानसिक बाधाओं से स्वयं को मुक्त कर लेता है |वह संसार की सेवा में  परमात्मा को अपने समस्त कर्म और उसके फलों को समर्पित कर देता है |आसनों पर अधिकार प्राप्त कर लेने पर लाभ -हानि ,जय -पराजय ,यश -अपयश ,शरीर- मन,मन -आत्मा की द्वैध अवस्था नष्ट हो जाती है और तब साधक योगमार्ग की चौथी स्थिति प्राणायाम की ओर उन्मुख होता है |प्राणायाम  के अभ्यास से  नासिकाएँ,  नासिका के मार्ग ,झिल्लियां  ,वायु प्रणाली को सशक्त बनाने की आवश्यकता होती है |प्राणायाम के अंतर्गत 'आयाम ' का अर्थ लम्बाई,विस्तार कसाव या प्रतिरोध है | अतः प्राणायाम शब्द का अर्थ श्वासों की व्याप्ति -विस्तार एवं नियंत्रण है |श्वासों के सभी प्रकार के कार्य सम्पादन  पर यह नियंत्रण लाता है ;जैसे श्वसन या पूरक ,उच्छ्वसन या रेचक ,श्वास को बाहर की ओर रोकना  अर्थात कुम्भक  कहलाता है |  कुम्भक ऐसी स्थिति है जिसमें श्वास लेने और श्वास निकालने की दोनों ही स्थितियां नहीं होती हैं | व्यक्ति एकाग्रता या ध्यान के बिना किसी वस्तु पर प्रभुत्व प्राप्त नहीं कर सकता है | विश्व को रूप देने वाले और उसे नियंत्रित करने वाले परमात्मा का ध्यान किये बिना व्यक्ति अपने अंतर के दिव्य अर्थात आत्मा को प्रकाशित नहीं कर पाता | इस ध्यान की प्राप्ति के लिए एकतत्वाभास का ज्ञान आवश्यक है -"वह एक तत्व जो सभी में व्याप्त है ,प्राणिमात्र की आत्मा है ,जो अपने एक रूप को अनेकों रूप में प्रदर्शित करता है | इसलिए साधक को एकाग्रता की प्राप्ति के लिए "ॐ" पर ध्यान   केन्द्रित करना होता है जो परमात्मा का प्रतीक है |