शरीर को जीवंत बनाये रखने में श्वसन क्रिया का महत्वपूर्ण योगदान होता है। श्वसन क्रिया ही मनुष्य को जीवनी शक्ति प्रदान करती है और उसकी गति से ही मनुष्य की आयु का निर्धारण होता है ।श्वसन क्रिया के एकमात्र केंद्र हमारे फेफड़े हैं जिनकी क्षमता एक बार में तीन से चार लीटर वायु अन्दर लेने व बाहर निकालने की है।प्रायः यह देखा जाता है कि पर्याप्त वायु जिसे ऑक्सीजन की भी संज्ञा दी जाती है ,के अभाव में शरीर प्रायः अस्वस्थ हो जाता है। फेफड़ों की निर्धारित क्षमता के अनुरूप पर्याप्त वायु /ऑक्सीजन ग्रहण करने से मनुष्य को दीर्घायु की प्राप्ति होती है।
श्वसन क्रिया में वैज्ञानिक परिवर्तन करने की विधि को ही प्राणायाम कहा जाता है। दूसरे शब्दों में श्वसन की कला को ही प्राणायाम की संज्ञा दी गयी है। नासिका में वायु के प्रवाह को स्वर माना जाता है। बायीं नासिका के प्रवाह को इड़ा नाडी तथा दायीं नासिका के प्रवाह को पिंगला नाड़ी कहते हैं। इड़ा नाडी मानसिक ऊर्जा तथा पिगला नाड़ी प्राण ऊर्जा से सम्बद्ध मानी जाती है./ मानसिक असंतुलन की स्थिति में इडा नाड़ी आक्रामक एवं पिंगला नाड़ी अतिक्रियाशील हो जाती है। प्राणायाम के माध्यम से हम श्वसन की दिशा व दशा दोनों में अभूतपूर्व परिवर्तन कर सकते हैं। प्रायः सामान्य श्वसन क्रिया के पश्चात ही प्राणायाम किया जाता है। सामान्यतः प्राणायाम की निम्नांकित तीन विधियाँ मानी गयी हैं :-
१- संतुलन प्राणायाम :-इस प्राणायाम में नाड़ी शोधन क्रिया को सम्मिलित किया गया है जिसमें क्रमशः धीरे- धीरे श्वास लेने व छोड़ने की प्रक्रिया निर्धारित की गयी है। इस क्रिया से इड़ा व पिंगला दोनों नाड़ियाँ समान रूप से प्रभावित होती हैं। शरीर और मन दोनों के असंतुलन को इस क्रिया के माध्यम से दूर किया जा सकता है।
२- प्रशान्तक प्राणायाम :-इस प्राणायाम के द्वारा शरीर और मन को शांत करते हुए प्राण ऊर्जा में अतिशय वृद्धि की जा सकती है। यह प्राणायाम तंत्रिका तन्त्र को प्रेरित करता है जिससे ध्यान की अन्तर्मुखी क्रिया सम्पादित होती है। इस श्रेणी में शीतली, शीतकारी,भ्रामरी व चन्द्र्भेदी प्राणायाम आते हैं।
३:- शक्तिवर्धक प्राणायाम :- इस प्राणायाम द्वारा स्थूल एवं सूक्ष्म तलों में ताप उत्पन्न होता है जिससे शक्ति में असाधारण वृद्धि स्वतः हो जाती है। इस श्रृखला के प्राणायाम से आलस्य व निष्क्रियता दूर होकर चैतन्य एवं सक्रियता की प्राप्ति होती है। इस श्रेणी में अग्निसार ,भस्त्रिका ,कपालभाती एवं सूर्यभेदी प्राणायाम आते हैं।
सामान्यतः व्यक्ति प्रत्येक मिनट में १५-२० बार साँस लेता व छोड़ता है / इस प्रकार प्रतिदिन वह २१६०० बार साँस लेता व छोड़ता है। कुत्ता एक मिनट में ६० बार साँस लेता व छोड़ता है जबकि हाथी ,सांप तथा कछुवा प्रत्येक मिनट में २-३ बार साँस लेते व छोड़ते हैं। जल्दी जल्दी साँस लेने व छोड़ने के कारण ही कुत्ते की सामान्य आयु १०-१५ वर्ष होती है जबकि हाथी,सांप तथा कछुवा की आयु सौ वर्ष या उससे भी अधिक होती है। इस प्रकार साँस लेने व छोड़ने की गति व स्थिति के अनुसार आयु का निर्धारण होता है। साँस लेने व छोड़ने का हमारे मन एवं भावों से गहरा सम्बन्ध है। अत्यधिक श्रम ,भय ,क्रोध ,व तनाव की स्थिति में सांसों की गति बहुत तेज हो जाती है। लययुक्त गहरी एवं धीमी श्वसन प्रक्रिया से मन को शांत, स्थिर एवं एकाग्र बनाया जा सकता है जबकि अनियमित और लम्बी लम्बी अथवा जल्दी जल्दी साँस लेने से मन अशांत हो जाता है। इसी दशा में प्राणायाम की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। प्राणायाम के अभ्यास के पूर्व एक लम्बी एवं गहरी साँस लेकर श्वसन क्रिया को सामान्य कर लेनी चाहिए तत्पश्चात निम्नांकित तीन विधियों का हमें अनुसरण करना चाहिए :-
उदर श्वसन :-श्वास लेना और छोड़ना श्वसन की प्रारम्भिक क्रिया है। उदर से साँस लेने की क्रिया को उदर श्वसन कहते हैं। तनाव, मादक पदार्थों के सेवन, गलत ढंग से बैठने,एवं तंग कपड़े पहनने के कारण पेट से साँस लेने की क्षमता कम हो जाती है जिसके कारण अनेकानेक रोगों का सामना करना पड़ता है। उदर श्वसन चलते- फिरते अथवा लेटे हुए कभी भी किया जा सकता है। इसके लिए सर्वप्रथम पद्मासन अथवा वज्रासन जिसमें भी सुविधा हो ,बैठ जाएँ तत्पश्चात कमर एवं गर्दन सीधी रखते हुए दोनों आँखों को बंद करके एक गहरी श्वास लें और छोड़ें। अपनी सांसों को सामान्य करके अब गहरी साँस अंदर लेते हुए पेट को बिना श्रम के अधिकतम फुलाएं। इस दौरान छाती की मांसपेशियों को थोडा आराम दें। फिर साँस को बाहर निकालते हुए पेट को अधिकतम पिचकाएँ। पांच बार यही क्रिया करें।
वक्षीय श्वसन :- इस श्वसन क्रिया में साँस लेते हुए वायु को छाती में ही भरा जाता है। गहरी साँस लेकर फेफड़ों को अधिकतम फुलाया जाता है। इस स्थिति में पसलियाँ ,गर्दन व हंसुली ऊपर की ओर उठती है किन्तु पेट एवं पेडू को बिलकुल अछूता रखा जाता है। साँस बाहर निकालते हुए छाती एवं पसलियों को धीरे- धीरे सामान्य किया जाता है।
यौगिक श्वसन :-इसके लिए सर्वप्रथम पद्मासन ,सिद्धासन अथवा पालथी मारकर किसी भी स्थिति में बैठते हुए रीढ़ एवं गर्दन को सीधा करते हुए आँखों को बंद कर लें। अब साँस अंदर लेते हुए पेट को फुलाएं और तत्पश्चात सीने को फुलाएं। साँस बाहर निकालते हुए पहले सीने को पिचकाएँ तत्पश्चात पेट को पिचकाएँ। इस क्रिया को लगभग ५ मिनट तक करें। यह सर्व श्रेष्ठ श्वसन क्रिया है./ इससे सर्दी ,जुखाम एलर्जी ,पेट के रोग तथा कफ सम्बन्धी समस्याओं से मुक्ति मिलती है।
श्वसन क्रिया में वैज्ञानिक परिवर्तन करने की विधि को ही प्राणायाम कहा जाता है। दूसरे शब्दों में श्वसन की कला को ही प्राणायाम की संज्ञा दी गयी है। नासिका में वायु के प्रवाह को स्वर माना जाता है। बायीं नासिका के प्रवाह को इड़ा नाडी तथा दायीं नासिका के प्रवाह को पिंगला नाड़ी कहते हैं। इड़ा नाडी मानसिक ऊर्जा तथा पिगला नाड़ी प्राण ऊर्जा से सम्बद्ध मानी जाती है./ मानसिक असंतुलन की स्थिति में इडा नाड़ी आक्रामक एवं पिंगला नाड़ी अतिक्रियाशील हो जाती है। प्राणायाम के माध्यम से हम श्वसन की दिशा व दशा दोनों में अभूतपूर्व परिवर्तन कर सकते हैं। प्रायः सामान्य श्वसन क्रिया के पश्चात ही प्राणायाम किया जाता है। सामान्यतः प्राणायाम की निम्नांकित तीन विधियाँ मानी गयी हैं :-
१- संतुलन प्राणायाम :-इस प्राणायाम में नाड़ी शोधन क्रिया को सम्मिलित किया गया है जिसमें क्रमशः धीरे- धीरे श्वास लेने व छोड़ने की प्रक्रिया निर्धारित की गयी है। इस क्रिया से इड़ा व पिंगला दोनों नाड़ियाँ समान रूप से प्रभावित होती हैं। शरीर और मन दोनों के असंतुलन को इस क्रिया के माध्यम से दूर किया जा सकता है।
२- प्रशान्तक प्राणायाम :-इस प्राणायाम के द्वारा शरीर और मन को शांत करते हुए प्राण ऊर्जा में अतिशय वृद्धि की जा सकती है। यह प्राणायाम तंत्रिका तन्त्र को प्रेरित करता है जिससे ध्यान की अन्तर्मुखी क्रिया सम्पादित होती है। इस श्रेणी में शीतली, शीतकारी,भ्रामरी व चन्द्र्भेदी प्राणायाम आते हैं।
३:- शक्तिवर्धक प्राणायाम :- इस प्राणायाम द्वारा स्थूल एवं सूक्ष्म तलों में ताप उत्पन्न होता है जिससे शक्ति में असाधारण वृद्धि स्वतः हो जाती है। इस श्रृखला के प्राणायाम से आलस्य व निष्क्रियता दूर होकर चैतन्य एवं सक्रियता की प्राप्ति होती है। इस श्रेणी में अग्निसार ,भस्त्रिका ,कपालभाती एवं सूर्यभेदी प्राणायाम आते हैं।
सामान्यतः व्यक्ति प्रत्येक मिनट में १५-२० बार साँस लेता व छोड़ता है / इस प्रकार प्रतिदिन वह २१६०० बार साँस लेता व छोड़ता है। कुत्ता एक मिनट में ६० बार साँस लेता व छोड़ता है जबकि हाथी ,सांप तथा कछुवा प्रत्येक मिनट में २-३ बार साँस लेते व छोड़ते हैं। जल्दी जल्दी साँस लेने व छोड़ने के कारण ही कुत्ते की सामान्य आयु १०-१५ वर्ष होती है जबकि हाथी,सांप तथा कछुवा की आयु सौ वर्ष या उससे भी अधिक होती है। इस प्रकार साँस लेने व छोड़ने की गति व स्थिति के अनुसार आयु का निर्धारण होता है। साँस लेने व छोड़ने का हमारे मन एवं भावों से गहरा सम्बन्ध है। अत्यधिक श्रम ,भय ,क्रोध ,व तनाव की स्थिति में सांसों की गति बहुत तेज हो जाती है। लययुक्त गहरी एवं धीमी श्वसन प्रक्रिया से मन को शांत, स्थिर एवं एकाग्र बनाया जा सकता है जबकि अनियमित और लम्बी लम्बी अथवा जल्दी जल्दी साँस लेने से मन अशांत हो जाता है। इसी दशा में प्राणायाम की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। प्राणायाम के अभ्यास के पूर्व एक लम्बी एवं गहरी साँस लेकर श्वसन क्रिया को सामान्य कर लेनी चाहिए तत्पश्चात निम्नांकित तीन विधियों का हमें अनुसरण करना चाहिए :-
उदर श्वसन :-श्वास लेना और छोड़ना श्वसन की प्रारम्भिक क्रिया है। उदर से साँस लेने की क्रिया को उदर श्वसन कहते हैं। तनाव, मादक पदार्थों के सेवन, गलत ढंग से बैठने,एवं तंग कपड़े पहनने के कारण पेट से साँस लेने की क्षमता कम हो जाती है जिसके कारण अनेकानेक रोगों का सामना करना पड़ता है। उदर श्वसन चलते- फिरते अथवा लेटे हुए कभी भी किया जा सकता है। इसके लिए सर्वप्रथम पद्मासन अथवा वज्रासन जिसमें भी सुविधा हो ,बैठ जाएँ तत्पश्चात कमर एवं गर्दन सीधी रखते हुए दोनों आँखों को बंद करके एक गहरी श्वास लें और छोड़ें। अपनी सांसों को सामान्य करके अब गहरी साँस अंदर लेते हुए पेट को बिना श्रम के अधिकतम फुलाएं। इस दौरान छाती की मांसपेशियों को थोडा आराम दें। फिर साँस को बाहर निकालते हुए पेट को अधिकतम पिचकाएँ। पांच बार यही क्रिया करें।
वक्षीय श्वसन :- इस श्वसन क्रिया में साँस लेते हुए वायु को छाती में ही भरा जाता है। गहरी साँस लेकर फेफड़ों को अधिकतम फुलाया जाता है। इस स्थिति में पसलियाँ ,गर्दन व हंसुली ऊपर की ओर उठती है किन्तु पेट एवं पेडू को बिलकुल अछूता रखा जाता है। साँस बाहर निकालते हुए छाती एवं पसलियों को धीरे- धीरे सामान्य किया जाता है।
यौगिक श्वसन :-इसके लिए सर्वप्रथम पद्मासन ,सिद्धासन अथवा पालथी मारकर किसी भी स्थिति में बैठते हुए रीढ़ एवं गर्दन को सीधा करते हुए आँखों को बंद कर लें। अब साँस अंदर लेते हुए पेट को फुलाएं और तत्पश्चात सीने को फुलाएं। साँस बाहर निकालते हुए पहले सीने को पिचकाएँ तत्पश्चात पेट को पिचकाएँ। इस क्रिया को लगभग ५ मिनट तक करें। यह सर्व श्रेष्ठ श्वसन क्रिया है./ इससे सर्दी ,जुखाम एलर्जी ,पेट के रोग तथा कफ सम्बन्धी समस्याओं से मुक्ति मिलती है।
Thanks for sharing detailed knowledge about types of swasan. Keep posting, always pray for your good health.
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