Saturday 10 September 2016

उच्च रक्तचाप का नियंत्रण एवं उपचार

 वर्तमान भौतिकवादी युग में भागमभाग की जिंदगी से मनुष्य तनावग्रस्त तो रहता ही है साथ ही साथ उच्च रक्तचाप जैसी बीमारी से भी ग्रस्त होता जा रहा है जिसके कारण उसे रात में अच्छी नींद भी नहीं आ रही है तथा मानसिक तनाव,मानसिक रोग व दुर्बलता का शिकार भी होना पड़ रहा है। उच्च रक्तचाप के लक्षण तब प्रगट होते हैं जब नसों अथवा रक्तवाहिनी धमनियों में व्यवधान उत्पन्न होने लगता है और रक्तप्रवाह असामान्य हो जाता है। ऐसी स्थिति में हृदय को अधिक जोर लगाकर रक्त को शरीर के समस्त अंगों में प्रेषण के लिए पम्प करना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप रक्तवाहिनियां कठोर हो जाती है और उनमें स्थान स्थान पर अवरोध उत्पन्न हो जाता है। कोलेस्ट्रॉल के जमने के कारण खून गाढ़ा होने लगता है जिसके कारण रक्तनलिकाओं का मार्ग स्वतः अवरुद्ध हो।  इस अवरुद्ध मार्ग से रक्त संचारित करने के लिए हृदय पर अधिक दबाव पड़ता है। इसी स्थिति को हाइपरटेंशन अथवा उच्च रक्तचाप कहा जाता है। उच्च रक्तचाप के कारण ही ब्रेन हैमरेज ,ह्रदयाघात की स्थिति का सामना करना पड़ता है। 
उच्च रक्तचाप का अभिप्राय हृदय की धड़कन के साथ रक्त धमनियों में धकेलने पर उनकी दीवारों पर पड़ने वाले दबाव से है। यदि यह दबाव निरन्तर सामान्य स अधिक रहता है तो उसे उच्च रक्तचाप की संज्ञा दी जाती है। यद्यपि व्यक्ति के रक्तचाप की स्थिति एक जैसी नहीं रहती है बल्कि यह घटता बढ़ता रहता है। उदाहरण के लिए जब वह सोता है तो रक्तचाप निम्न स्तर पर आ जाता है और जब वह जाग्रत अवस्था में रहता है तब अपेक्षाकृत उसमें वृद्धि हो जाती है। रक्तचाप बढ़ने का कारण अधिक क्रियाशीलता,एक्साइटिड,तनाव,क्रोध आदि भी हो सकता है। यदि रक्तचाप हमेशा सामान्य से अधिक रहता है तो यह अवस्था स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मानी जाती है। वैज्ञानिकों का मत है कि एस टी के जीन रक्तचाप को बढ़ाने में सहायक होती है क्योंकि यह जीं एक प्रोटीन का निर्माण करती है जो किडनी के माध्यम से रक्त में नमक को नियंत्रित करने की प्रक्रिया को प्रभावित करती है। रक्तचाप की वृद्धि तभी होती है जब खून में नमक की मात्रा बढ़ जाती है। तनाव भी उच्च रक्तचाप का प्रमुख कारक माना जाता है क्योंकि कोलेस्ट्रॉल  यह स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कोलेस्ट्रॉल बढ़ने का प्रमुख कारण अम्लप्रधान आहार एवं श्रमरहित जीवनशैली है। 
उच्च रक्तचाप के कारण :-
उच्च रक्तचाप का प्रमुख कारण आवश्यक मात्रा से अधिक भोजन करना ,अधिक वसा व चिकनाई वाले पदार्थों ,टेल हुए भोजन ,नमकीन पदार्थ,चाय व काफी का सेवन ,धूम्रपान,मद्यपान करना है। मधुमेह ,गठिया ,दमा ,या किडनी का विकार होना भी इसका कारण बन जाता है। मानसिक चिंता ,तनाव ,अशांत जीवन ,भागदौड़ की दिनचर्या ,पर्याप्त गहरी नींद न लेना ,लगातार लम्बे समय तक एलोपैथिक दवाईयां लेना आदि हैं। वंशानुगत ,मोटापा भी इसका कारण माना जाता है। वैज्ञानिकों का मत है कि इसका प्रधान कारण अस्त व्यस्त जीवन शैली व अपौष्टिक भोजन लेना है। प्राकृतिक ,सहज व सदा जीवन से दूर होकर मनुष्य बनावटी व अप्राकृतिक जीवन शैली अपनाने लगा है जिसके कारण दुःख,रोग व तनावपूर्ण जीवन का सामना उसे करना पद रहा है। शारीरिक श्रम के स्थान पर अधिक मानसिक श्रम करना ,विलासितापूर्ण जीवन के सभी उपकरणों का प्रयोग करना , सात्विक भोजन के स्थान पर फ्रिज का बासी भोजन ,फ़ास्ट फ्रूड का सेवन ,गरिष्ठ व तला भुना भोजन की प्राथमिकता आदि से कब्ज,कोलेस्ट्रॉल का बढ़ना ,रक्तधमनियों में अवरोध उत्पन्न होना तथा रक्तवाहिनी नलिकाओं में अवरोध उत्पन्न होना ,जैसी समस्याओं का सामना उसे करना पड़ता है। 
स्वस्थ व्यक्ति के लिए सामान्यतः १३० /८० अथवा १२० /८० एम एम एच जी रक्तचाप होना चाहिए। उच्च रक्तचाप में यह स्तर १६० /१०० अथवा इससे भी अधिक २०० /१२० एम एम एच जी तक पहुँच जाता है। कभी कभी इससे भी ऊपर रक्तचाप पंच जाता है तभी यह जानलेवा बन जाता है। दिल के संकुचन की क्रिया को सिस्टोलिक तथा दिल के फैलने की क्रिया को डायस्टोलिक कहा जाता है प्रायः बच्चों का रक्तचाप ८० /५० ,युवकों का १२० /७० तथा वृद्धों का १४० /९० एम एम एच जी तक सामान्य माना जाता है। 
शरीर में उच्च रक्तचाप के प्रमुख कारण निम्न हैं :-
आयु :-पुरुषों में ४५ वर्ष तथा महिलाओं में ५५ वर्ष के बाद उच्च रक्तचाप की सम्भावना बढ़ जाती है। 
लिंग :-लिंग की दृष्टि से पुरुषों में महिलाओं की अपेक्षा उच्च रक्तचाप की सम्भावना अधिक होती है। 
वंशानुगत :-माता -पिता को यदि उच्च रक्तचाप है तो बच्चों में इसकी सम्भावना बढ़ जाती है। 
अन्य कारण :- मोटापा,तनावग्रस्त जीवन ,गरिष्ठ भोजन ,नमक तथा वसा का अधिक प्रयोग ,धूम्रपान,मदिरासेवन,कार्याधिक्य आदि। 
 उच्च रक्तचाप के लक्षण :-
उच्च रक्तचाप को निम्न चार अवस्थाओं में विभक्त करके इसकी  पहचान की जा सकती है। 
१- सामान्य अवस्था :-जब व्यक्ति का रक्तचाप १२० /८० एम् एम् एच जी होता है तो इसे सामान्य रक्तचाप कहा जाता है। 
२- पूर्व अवस्था :-यदि रक्तचाप का स्तर सिस्टोलिक १२० से ऊपर तथा १४० से कम और डायस्टोलिक ८० से अधिक तथा ९० एम् एम् एच जी से कम हो तो इसे उच्च रक्तचाप की पूर्व अवस्था कहते हैं। 
प्रथम अवस्था :-इस अवस्था में ररक्तचाप सिस्टोलिक १४० से १६० तथा डायस्टोलिक ९० से ९९एम् एम् एच जी  तक माना जाता है। 
 - द्वितीय अवस्था :-इस अवस्था के अंतर्गत उच्च रक्तचाप सिस्टोलिक १६० या इससे अधिक तथा डायस्टोलिक १००  एम् एम् एच जी या इससे अधिक पाया जाता है।
उच्च रक्तचाप का प्रभाव :-
उच्च रक्तचाप के कारण शरीर की रक्तधमनियां ,हृदय,गुर्दे तथा अन्य अवयवों पर अनेकानेक दुष्प्रभाव परिलक्षित होने लगते हैं जिनमें प्रमुख प्रभाव निम्न हैं :-
धमनियों पर पड़ने वाला प्रभाव :-उच्च रक्तचाप का धमनियों के अंदर की दीवारों पर अधिक दबाव पड़ता है जिससे उनसे छोटे छोटे आंसू अथवा माइक्रोस्पिक टियर्स  निकलने लगते हैं जो वहां के ऊतकों पर जख्म के निशान बना देते हैं जिससे शरीर की धमनियां क्षतिग्रस्त हो जाती हैओं। धमनियों के क्षतिग्रस्त होने से वहां पर वसा ,कोलेस्ट्रॉल तथा अन्य पदार्थ चिपकने लगते हैं जो क्रमशः धमनियों को सख्त,सङ्कर और मोटा बनाने की क्रिया को तेज कर देते हैं। क्षतिग्रस्त धमनियां शरीर के अन्य अवयवों को पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन तथा पोषक तत्व पहुँचाने  में असमर्थ हो जाती हैं जिससे शरीर के अवयव धीरे धीरे कमजोर पड़ने लगते हैं। क्षतिग्रस्त धमनियों की दीवारों पर वसा के अधिक जमने से रक्त के थक्के बनने की क्रिया शुरू हो जाती है। यही थक्के रक्त संचरण प्रणाली के माध्यम से किसी भी बारीक़ व सँकरे धमनी में फंसकर शरीर के किसी भी हिस्से में रक्त की सम्पूर्ति को रोक देते हैं जिससे शरीर के उस अंग से सम्बन्धित विकार शरीर में आने लगते हैं और यही थक्का शरीर के किसी एक धमनी में फंसने से अधरंग तह हृदय की किसी कोरोनरी धमनी में फंसने से हृदय रोग को जन्म दे देती है। 
उच्च रक्तचाप के प्रमुख लक्षणों में चक्कर आना,सोकर उठने पर थकावट महशूस होना ,शरीर में ऐँठापन महशूस होना ,सिर चकराना,चिड़चिड़ाहट होना ,कार्य में मन न लगना , पाचन शक्तियों का क्षीण हो जाना ,सीढियाँ चढ़ते समय अथवा श्रम करते समय साँस का फूलना ,श्रम करने की क्षमता में गिरावट ,घबराहट ,अनिद्रा,साइन में खिंचाव महशूस होना आदि हैं। 
उपचार :-
वैसे तो उच्च रक्तचाप को व्यक्ति अपनी दिनचर्या में आवश्यक परिवर्तन करके भी इसे तक कर सकता है। उच्च रक्तचाप के कारक तत्वों यथा अपनी आदत में सुधार लाकर धीरे धीरे  भी इसे नियंत्रित किया जा सकता है। ऐसी आदतों को दूर करने में निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक है  १- भोजन में तेज मिर्च ,मसाले नमक तथा वसा की मात्रा को कम कर दें तथा मौसमी फल ,सब्जियां,सलाद व अंकुरित अनाज का प्रयोग बढ़ा दें। शुद्ध पानी पियें और पानी की मात्रा को भी क्रमशः बढ़ते रहें। 
२-अपने शारीरिक वजन पर अवस्थानुसार नियंत्रण रखें। 
३- धूम्रपान व मदिरा सेवन कदापि न करें। 
४-तनावमुक्त रहने का प्रयास करें। 
५- ताड़ासन,त्रिकोणासन,अर्धमत्स्येन्द्रासन उष्ट्रासन,भुजंगासन,शलभासन,धनुरासन,शशांकासन ,मकरासन ,शवासन सूर्यनमस्कार का निरन्तर अभ्यास करते रहें। 
६- प्राणायाम में गहरे लम्बे श्वास भरना ,अनुलोम विलोम ,चन्द्रभेदी ,उज्जायी तथा भ्रामरी प्राणायाम का नियमित अभ्यास करें। 
७- प्रतिदिन प्रातःकाल एवं सायं काल १० -१० मिनट का शवासन तथा ४५ मिनट की योगनिद्रा इसके नियंत्रण में विशेष सहायक होती है। 
ध्यान द्वारा उच्च रक्तचाप का उपचार :-
शरीरस्थ रक्त भ्रमण प्रणाली के माध्यम से हृदय शरीर  अंगों तक रक्त की सम्पूर्ति करने के लिए प्रत्येक धड़कन के साथ धमनियों में रक्त को आगे की ओर धकेलता है। रक्त नलिकाओं की आंतरिक दीवारों में अपनी लोच के कारण संकुचन व विस्तार की क्रिया निरन्तर होती रहती आई जो रक्त को धमनियों में आगे को ओर बढ़ाने में सहायक होती हैं। आयु बढ़ने के साथ साथ विपरीत दिनचर्या के कारण इन रक्त नलिकाओं में कड़ापन आ जाता है तथा इनकी दीवारें मोती हो जाने पर इनकी संकुचन व विस्तार की सकती का क्रमशः ह्रास होने लगता है जिससे धमनियों की दीवारो पर बहुत अधिक दबाव बन जाता है। यही उच्च रक्तचाप का मुख्य कारण है। उच्च रक्तचाप सामान्यतः अशांत,बेचैनी,तनावग्रस्त रहने के कारण होता है। अतः इस दुष्परिणाम को रोकने के लिए मन को शांत,आनंदपूर्ण,तनावरहित व प्रसन्न बनाने की आवश्यकता है। ध्यान इस क्रिया में विशेष सहायक माना जाता है क्योंकि यह अशांत ,बेचैन व तनाव की अवस्था को शांत व प्रसन्नतापूर्ण अवस्था में बदलने की प्रभावकारी तकनीक है। ध्यान की क्रिया से मांसपेशियों में तनाव ,मानसिक तनाव तथा भावनात्मक तनाव से सहज मुक्ति मिल जाती है। यदि उच्च रक्तचाप का रोगी प्रतिदिन ३०-४५ मिनट तक निरन्तर ध्यान करने की क्रिया सम्पादित करता है तो वह धीरे धीरे इस रोग से मुक्त हो सकता है। 
ऋषिओं एवं मुनियों द्वारा अनुभूत यह प्रणाली आनंद की अनुभूति जागृत करती है क्योंकि आंतरिक आनंद के समक्ष बाह्य आनन्द जिसे हम सुख कहते ऐन ,तुच्छ है। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान शांतिकुंज हरिद्वार में ध्यान पर कई वैज्ञानिक परीक्षण किये गए हैं और इन परीक्षणों से यह निष्कर्ष निकल कि ध्यान की अवस्था में हमारे शरीर और मन में कई  क्रन्तिकारी परिवर्तन  होते हैं जैसे कि शरीर और मन का तनाव रहित हो जाना ,हृदय के  धड़कनों के बीच अंतराल का बढ़ जाना ,पाचन क्रिया में सुधर ,हृदयगति का कम हो जाना ,शरीर में आक्सीजन कम होना ,मष्तिष्क में अल्फ़ा तरंगों का बनना व रक्त नलिकाओं की आंतरिक दीवारों का लचीला हो जाना आदि। ध्यान के अंतर्गत जब हम ॐ की ध्वनि  के उच्चारण का निरन्तर अभ्यास करते हैं तो उससे हमारे मष्तिष्क में जो अल्फ़ा तरंगें बनती हैं वह हमें शांति व आनंद की अनुभूति करवाती हैं  जिससे हृदय की मांसपेशियां  शक्तिशाली होने लगती हैं और हृदय की कोरोनरी धमनी की रुकावट समाप्त हो जाती है। ध्यान के द्वारा हम शरीर की रक्त नलिकाओं को लचीला बनाकर उच्च रक्तचाप की सम्भावना को समाप्त कर सकते हैं। अतः ध्यान को अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करके प्रतिदिन प्रातः एवं सायं ३० मिनट का समय इसके लिए देना पर्याप्त होगा। 

Friday 9 September 2016

मधुमेह एवं उच्च रक्तचाप

 वैसे तो मधुमेह एवं उच्च रक्तचाप अलग अलग बीमारियाँ हैं किन्तु इन दोनों बीमारियों के कतिपय लक्षण व कारण आपस में मिलते जुलते हैं। मधुमेह पीड़ित व्यक्ति को उच्च रक्तचाप रोग की सम्भावना अधिक बढ़ जाती है इसीलिए इन दोनों का एक साथ वर्णन करने की आवश्यकता समझी गयी। उच्च रक्तचाप या हाइपरटेंशन की स्थिति तब बनती है जब किसी वयस्क व्यक्ति का सिस्टोलिक दबाव १४० मि० मी०  और डायस्टोलिक दबाव ८९ मि० मी०मरकरी से लगातार अधिक रहता है। उच्च रक्तचाप के कारण हृदय को अधिक शक्ति से धड़कना पड़ता है जिससे हृदय का आकार बढ़ जाता है। इस स्थित से  कभी कभी हृदय पक्षाघात ब्व्ही हो जाता है। उच्च रक्तचाप के दुष्प्रभाव आँखों,गुर्दों,मष्तिष्क आदि अंगों में परिलक्षित हो सकते हैं। मधुमेह और उच्च रक्तचाप दोनों ही रोगों की सम्भावना उम्र बढ़ने के साथ अधिक हो जाती है। दोनों रोगों के कारण लगभग एक ही हैं जैसे धूम्रपान,मदिरासेवन,तनाव,विलासितापूर्ण जीवन शैली ,मोटापा,अधिक वसायुक्त भोजन आदि। अधिकांशतः मधुमेह के रोगों में हाइपरटेंशन भी पाया जाता है। अतः दोनों रोगों के कारणों में एकरूपता के कारण इनमें अन्योनाश्रित सम्बन्ध माना जाता है। 
यदि किसी मधुमेह पीड़ित व्यक्ति को उच्च रक्तचाप भी है तो उसमें हृदय धमनी रोग,एंजाइना ,हार्टअटैक,हार्ट फेलियर,पक्षाघात,गैगरिन,किडनीरोग,अंधापन आदि की सम्भावना बढ़ जाती है। दोनों रोगों पर गहन शोध करने पर यह तथ्य ज्ञात हुआ कि मधुमेह के रोगी यदि उच्च रक्तचाप से पीड़ित हैं तो उनकी औसत आयु ३३ प्रतिशत कम हो जाती है। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु कम आयु में हो जाती है तथा ७५ प्रतिशत रोगोयों में मौत का कारण कोरोनरी धमनी रोग होता है। वैज्ञानिकों  ने यह पाया है कि मधुमेह रोगियों में उच्च रक्तचाप होने की सम्भावना सामान्य व्यक्तियों से दो गुनी हो जाती है किन्तु महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा अधिक सम्भावना होती है। मधुमेह रोगियों में उच्च रक्तचाप के कारण केवल सिस्टोलिक ब्लडप्रेशर बढ़ सकता है और अन्य में डायबिटीज के कारण गुर्दे प्रभावित होने से रक्तचाप बढ़ जाता है। यदि कोई व्यक्ति पूर्व में उच्च रक्तचाप से पीड़ित है और बाद में उसे मधुमेह रोग भी हो जाता है तो रक्तचाप और अधिक बढ़ जाता है तथा उसे नियन्त्रित करने में कठिनाई भी होती है। मधमेह में रक्त में सुगर की मात्रा बढ़ जाती है। रक्त में इन्सुलिन की मात्रा बढ़ने पर रक्त में कोलेस्ट्रॉल तथा ट्राईगिल्सराइड की मात्रा भी बढ़ सकती है।
सावधानियां :--
डाइबिटीज तथा उच्च रक्तचाप का साथ उसी प्रकार का माना जाता है जैसे करेला वह भी नीम चढ़ा। दोनों के एकसाथ हो जाने पर हृदय धमनी रोग,किडनी के रोग, हृदय फेलियर ,पक्षाघात व आँख के रोग प्रभावी हो जाते हैं। अतः ऐसे रोगियों यह सलाह है कि वे शीघ्रातिशीघ्र इसका उपचार कराकर दवाएं लेना आरम्भ कर दें जिसे रक्तचाप तथा रक्त में शर्करा की मात्रा पर प्रभावी नियंत्रण किया जा सके। उपचार के साथ कतिपय परहेज विशेषकर खानपान व दिनचर्या में सुधार भी लाया जाना आवश्यक है।यदि उच्च रक्तचाप का कोई व्यक्ति प्रथम चरण में अर्थात सिस्टोलिक रक्तचाप १०४ से १५० मि ० मी० मरकरी के मध्य हैतथा डायस्टोलिक रक्तचाप ९० से ९९ मि ० मी ० मर्करी के मध्य है और मधुमेह से ग्रसित नहीं है तो उसका उपचार ६ से १२ महीने तक उचित परहेज,व्यायाम,योग,वजन कम करने के प्रयास तथा नमक की मात्रा कम करने से सम्भव हो सकती है किन्तु यदि इतने रक्तचाप पर व्यक्ति मधुमेह से भी ग्रसित है तो उसके उपर्युक्त परहेज के साथ रक्तचाप घटाने की औषधि भी लेना आवश्यक होगा। इन दोनों रोगों के उपचार में निरन्तर योगाभ्यास करना अधिक लाभदायक होगा। 
मधुमेह का नियन्त्रण नियमित व्यायाम एवं योगाभ्यास से अधिक सरल हो जाता है। विभिन्न शोध मधुमेह को नियंत्रण में रखने हेतु योगासन एवं व्यायाम की प्रधान भूमिका स्वीकार करते हैं क्योंकि नियमित व्यायाम न केवल सक्रियता बढ़ता है बल्कि टाइप -२ के रोगी को पूरी तरह मधुमेह के नियंत्रण में सहायक भी होता है। उचित ढंग से किया गया व्यायाम व योगासन रक्त में शुगर की मात्रा को नियंत्रित के देता है किन्तु व्यायाम एवं योगासन के पूर्व सम्बन्धित विशेषज्ञों से परामर्श अवश्य कर लेना चाहिए। मधुमेह के मरीज की आयु व सुगर की स्थिति के अलावा दिल की सेहत भी मायने रखती है। इसी आधार पर प्रत्येक को उसकी स्थिति एवम आवश्यकता के अनुरूप व्यायाम व योगासन करने की सलाह आवश्यक है।
व्यायाम व योगासन से मिलने वाले लाभ निम्नवत हैं :--
१-दिल से सम्बन्धित बीमारियों व हार्टस्ट्रोक का खतरा कम हो जाता है। 
२- नियमित अभ्यास से रात्रि में अच्छी नींद आती है जिससे तनाव नियंत्रण में सहायता मिलती है। 
३- हानिकारक कोलेस्ट्रॉल और रक्तचाप दोनों नियंत्रित हो जाता है जिससे दैनिक कार्यों हेतु पर्याप्त ऊर्जा मिल जाती है। 
४-डायबिटीज के रोगोयों के लिए अपना वजन नियंत्रण करना आवश्यक है और यह नियमित व्यायाम व योगाभ्यास से ही सम्भव है। 
५-रक्त में शर्करा के बढ़े हुए स्तर से शरीर का रक्त संचार प्रभावित होता है। नियमित व्यायाम व योगासन से शरीर में रक्त संचार बेहतर हो जाता है और रक्त सम्पूर्ण शरीर में निर्बाध रूप से पहुंचने लगता है। 
   मधुमेह के रोगी के लिए प्रातःकाल टहलना भी विशेष लाभदायक माना जाता है। प्रतिदिन ४०-५० मिनट तक टहलना पर्याप्त होगा। अधिक देर तक कुर्सी पर बैठने का बाद थोड़ा थल लेना भी लाभदायक होगा। मांसपेशियों को मजबूत बनाये रखने हेतु वेट ट्रेनिंग टाइप -२ के मरीजों के लिए अधिक लाभदायक माना जाता है। नियमित योगासन करने से वसा निरन्तर कम हो जाती है और इन्सुलिन नियंत्रण में रहता है तथा तंत्रिकातंत्र बेहतर तरीके से अपने कार्य करने लगते हैं। योगासन में निरन्तरता बहुत आवश्यक मानी जाती है। नियमित रूप से एक दो घण्टे साईकिल चलना भी दिल को मजबूत करता है और फेफड़े बेहतर ढंग से अपना कार्य करने लगते हैं क्योंकि साईकिल चलाने पर शरीर के विभिन्न भागों में रक्त संचार बेहतर हो जाता है तथा वजन नियंत्रण में भी यह सहायक होता है। जिन मधुमेह रोगियों के पेट में रक्त संचार की कमी की समस्या हो उन्हें तैराकी भी लाभदायक होगा क्योंकि इसमें पैरों के संचालन में अधिक शक्ति नहीं लगानी पड़ती है और प्रकारान्तर से पूरे शरीर का व्यायाम हो जाता है। 
शरीर के वजन को घटाने के लिए भोजन में कैलोरी की मात्रा कम करनी पड़ेगी तथा भोजन में वसा की मात्रा २० ग्राम प्रतिदिन से अधिक नहीं होनी चाहिए। भोजन में नमक की मात्रा भी ६ ग्राम प्रतिदिन से अधिक नहीं होनी चाहिए। नमकीन,तले हुए पदार्थ का परित्याग करना होगा तथा भोजन में प्रोटीन की मात्रा भी कम कर देनी होगी। इस प्रकार पर्याप्त परहेज ,नियमित व्यायाम व योगासन से मधुमेह के कारण शरीर के अंगों पर होने वाले हानिकारक प्रभाव स्वतः कम हो जायेंगे। मधुमेह नियंत्रण हेतु उपरोक्त के साथ ही साथ औषधियों का प्रयोग भी लाभदायक होता है।      

Thursday 5 May 2016

**गुरु नानक देव


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       ukud us vius vuq;kf;;ksa dks thou ds nl fl)kar fn, vkSj dgk] ^^bZ’oj ,d gS] lnSo ,d gh bZ’oj dh mikluk djks( txr dk dŸkkZ lc txg vkSj lc izkf.k;ksa esa O;kIr gS( loZ’kfDreku bZ’oj dh vjk/kuk ls fdlh izdkj dk Hk; eu esa ugha jgrk( bZekunkjh ls esgur dj jksth&jksVh dekuh pkfg,( cqjk dk;Z djus ds fo"k; esa ugha lkspuk pkfg,( fdlh dks lrkuk ugha pkfg,( ges’kk izléfpŸk jguk pkfg,( ijekRek ls vius fy, {kek’khyrk ekaxuk pkfg,( viuh dekbZ dk dqN Hkkx t:jrean dks Hkh nsuk pkfg,( lHkh L=h&iq#"k cjkcj gSa( Hkkstu 'kjhj dks thfor j[kus ds fy, djuk pkfg,( yksHk] ykyp o laxzg ugha djuk pkfg,A
       ukud ds fl)kar osnkUr ds fl)karksa ls ifjiw.kZ FksA os deZ dks ekurs gSa] iqutZUe dks ekurs gSa] fuokZ.k vkSj ek;k dks ekurs gSa czãk] fo".kq vkSj egs’k ds f=&nsoRo esa fo’okl djrs gSA mudk xq#&ijaijkvksa esa tks fo’okl gS] og lwQh er ls [kwc iq"V gqvk nh[krk gSA bLyke dh ekSfyd f’k{kk ds foijhr vkSj lwQh er dh lk/kuk ds vuqlkj] os oSjkX; esa Hkh vkLFkk j[krs gSaA blds flok uke ti] /;ku] lekf/k vkSj jkt;ksx dk Hkh muds ;gka cgqr egŸo gSA lc feykdj xq: ukud }kjk izofrZr iaFk ljy] lqdqekj] tufiz; ,oa fou;iw.kZ iaFk FkkA
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Wednesday 6 May 2015

''रसिकाचार्य श्री करूणासिन्धु जी महाराज'' को पुष्पांजलि

।। श्री सीतारामाभ्यां नम:।।              ।। श्रीमते करूणासिन्धुवे नम:।।

''रसिकाचार्य श्री करूणासिन्धु जी महाराज'' को
पुष्पांजलि
अथक  कर्मरत, अविरत जाग्रत, बहुविधि अथ-इति ज्ञाता।
अगणित संत  उपकृत  तुमसे, रास  रसिक फल  दाता।।
श्री मानस ललित ललाम सुटीका आनन्द लहरि प्रदाता।
  यश वैभव से अभिसिंचित हो , यश: शेष  तव  गाथा।।1।।

रसिकाचार्य, धर्म संरक्षक, तुलसी रामायण उदगाता।
स्मृति, वेद, पुराण आदि के  प्रखर प्रवर व्याख्याता।।
चारूशिला प्रिय सन्त शिरोमणि, धर्म सनातन त्राता।
          भक्ति - मार्ग के संवाहक हो , शत धर्म.ग्रन्थ निर्माता ।।2।।

करूणा की प्रतिमूर्ति कहूँ या, भक्त् शिरोमणि  पण्डित ।
   सहृदयसरल, विवेकी, सदगुण, मनुज-प्रेम से स्पन्दित  ।।
राम भक्तिमय, ज्ञान  सिन्धु हे, रूणासिन्धु  सुमण्डित  ।
     श्रद्धा  के कुछ शब्द.पुष्प, अब गुरूवर है  तुमको  अर्पित ।।3।।

श्री हनुमत्कृपा प्राप्त निज पथ पर, द्विजवर भाव.प्रबल ।
  स्वजन्म भूमि से सरयू तट तक, चले सतत अविचल ।।
  हुआ प्रकाशित 'गढ़ प्रताप',ग्राम  गोपालापुर शुभ  स्थल ।
     पूज्य पितामह साथ रहें, बन धतुरा-कुल के सम्बल।।4।

                             डा0 जटाशंकर त्रिपाठी ''जिज्ञासु 

''दिव्य पुरूष एवं युग प्रवर्तक'' रसिकाचार्य श्री करूणासिन्धु जी महाराज की जीवन-यात्रा

''दिव्य पुरूष एवं युग प्रवर्तक''
रसिकाचार्य श्री करूणासिन्धु जी महाराज की जीवन-यात्रा
उत्तर प्रदेश के जनपद प्रतापगढ़ तहसील कुण्डा के अन्तर्गत हीरागंज बाजार के सनिनकट गाँव गोपालापुर के ब्राह्राण (धतुरा तिवारी) कुल में विधि-विधानपूर्वक मानस यज्ञ (अखण्ड रामायण पाठ) के सम्पन्न होने के फलस्वरूप विक्रम संवत-१७३०, सन-१६७४ र्इ० के बैशाख मास के शुक्ल पक्ष चतुर्दशी को श्री जानकी तिवारी के घर पुत्र रत्न स्वरूप एक तेजस्वी एवं नखरूप चन्द्र के तेज से उत्पन्न बालक ने जन्म लिया था।
दिन चारि चतुर्दशी शुक्ल सुमाधव मास स्वपन्न सवे  अनया।
सब लोग सुखदद शशी कर हदद उजग्गर वंश सुपुत्र भयो।।
सत्रह सौ तीस सुविक्रम अब्द सुभाष  भयो तिहँ  लोक जसी।
शशि पूर्ण कला नखते जपला पद अंगुठवाम सुआनि वसी।।
(श्री करूणामणि माला से उदघृत सवैया)
परिवार के कुल पुरोहित पंडित देवानन्द जी ने नामकरण संस्कार कर प० रामप्रपन्न नाम देते हुए शुभाशीष स्वरूप बालक की जन्मपत्री की संरचना करके उनके भविष्य की एक झलक विलक्षण प्रतिभावान बालक की प्रस्तुत कर दी थी। बडे़ धूम-धाम से बालक की माता ने अपने आंगन में परिवार की नारियों को बुलाकर बालक की छठि-कर्म सम्पन्न किया तथा यथोचित दान-दक्षिणा देते हुए बालक के जन्म की खुशियाँ मनायी। एक दिन माता श्रीमती पदमा ने बालक के पालने में खेलते समय उसके आभा मंडल के प्रकाश को गौर से देखा तो वह अचेत होकर वहीं गिर पड़ी। परिवार के बुजुर्गों ने बालक की माता को सांत्वना देते हुए उसे संत-कृपा का फल बताया तो उसी समय बालक के हाथ पर श्री राम चरित मानस (गुटका) ग्रन्थ व तुलसी दल को रखते हुए परिजनों ने बालक की न्यौछावर की एवं पुन: गरीबों को दान-दक्षिणा बाँटी गयी। बालक के माता-पिता की उक्त प्रसन्नता को करूणामणिमाला के इस दोहे से भलीभाँति समझा जा सकता है:-
कहुँ पालना कहुँ गोद  में दूध  पियावति  मात।
चरण हाथ मुख चूमती तेल लगावति गात ।।1।।
मजिज  मंद  हँसि  झीगुंली  कंगही  केश  सुधारि।
भाल दिठोना अंजि दृग चूमति हृदय उघारि ।।2।।
(श्री करूणामणि माला से उदघृत सवैया)
बाल्यकाल में घुटने के बल चलते हुए बालक पं० रामप्रपन्न तिवारी को लोटा-थाली बजाकर मग्न होकर नाचते हुए देखकर माता अत्यन्त भाव-विभोर हो जाती। चैतमास में अयोध्या के रामघाट पर बालक का मुंडन कराकर ब्राह्मण भोजन का आयोजन कराते हुए मुंडन संस्कार सम्पन्न कराया गया और स्थानीय विभिन्न मनिदरों की परिक्रमा करते हुए अन्त में हनुमान मंदिर की डयोढी पर बालक को लिटाकर उनके आशीर्वाद एवं कृपा की याचना परिजनों द्वारा की गयी। मंदिर से घर वापस आकर नाच-गाने के साथ भण्डारा करके पुन: परिवार में खुशियाँ मनायी गयी। गाव के लोग बालक की तेजस्वी छवि एवं विलक्षण प्रतिभा को देखकर आपस में यही बात करते थे कि ब्राह्मण कुल में इस बालक ने किसी पुण्यात्मा के रूप में जन्म लिया है। कुल पुरोहित पंडित देवानंद ने इस विलक्षण प्रतिभा के बालक को अपने संरक्षण में वेदशास्त्र की विधिवत शिक्षा-दीक्षा आरम्भ की। शिक्षा के पश्चात पं० रामप्रपन्न तिवारी का श्री अजमोद कुमार की पुत्री विलासिनी से विवाह भी कर दिया गया। रियासत ढि़गवस बेंती तथा कालाकांकर द्वारा बार-बार उन्हें पुरोहित के रूप में स्वीकार करने का आमंत्रण भेजा गया किन्तु पं० रामप्रपन्न तिवारी अपनी आर्थिक सिथति अच्छी न होने के बावजूद भी उस आमंत्रण को अस्वीकार करते रहे। राजा कालाकांकर श्री वैरीशाल ने एक दिन स्वप्न देखा कि कोर्इ युवा ब्राह्मण हाथ में लाठी लेकर उनके सामने खड़ा है और पूरा राजमहल आग से जल रहा है। इस दृश्य से राजा की नींद खुली और उन्होंने तत्काल अपने परिजनों को बुलाकर स्वप्न की बात बतायी। राज दरबार के कुछ लोगों ने कुल देवता के रूष्ट होने की बात कही तो कुछ ने इसे केतु-ग्रह का प्रकोप बताया। इस घटना के बाद राजा कालाकांकर वैरीशाल स्वयं गोपालापुर आकर पं० राम प्रपन्न तिवारी से अपनी रियासत के लेखा प्रबन्धन कार्य के रिक्त पद को स्वीकार करने का इस शर्त के साथ यह हठ कर लिया, कि जब तक आप कालाकांकर नही चलेंगे तब तक मैं भी आपके पास ही रहूँगा। पं० राम प्रपन्न तिवारी अन्तत: इस अनुरोध को स्वीकार करते हुए कालाकांकर आकर रियासत के लेखा एवं प्रबन्धन कार्य संभाल लिए। पंडित राम प्रपन्न तिवारी के कालाकांकर आने पर राजा वैरीशाल द्वारा देखे गये स्वप्न अर्थात केतु के प्रकोप से जो अनर्थकारी कि्रयायें हो रही थी वे धीर-धीरे शान्त होने लगी। प्रतिदिन राजा वैरीशाल परिजनों के साथ पंडित जी द्वारा कराये गये पूजा पाठ में समिमलित होने लगे व रामकथा सुनने लगे। ऐसे पुण्यात्मा ब्राह्मण के सानिध्य में राजा वैरीशाल धीरे-धीरे परमार्थ अर्थात अध्यात्म की ओर उन्मुख होने लगे।
     पं० रामप्रपन्न तिवारी प्राय: अपने आराध्य देव श्री हनुमान जी की आराधना में लीन रहते हुए हदय में भगवान राम व सीता की मनमोहक छवि को संजाये हुए श्री हनुमान की विशेष कृपा प्राप्त कर लिए थे। इसी मध्य एक दिन ऐसा भी आया, जब वे किसी विशेष पूजा में व्यस्त होने के कारण रियासत का कार्य उस दिन नही देख पाये थे। पूजा समापित के पश्चात अपने कर्तव्य का आभास होने पर वे सीधे रियासत के कार्यालय पहुँचकर सहयोगी कर्मचारियों से रियासत की लेखाबही प्रस्तुत करने का आग्रह किया, ताकि रियासत के उस दिन का लेेखा-जोखा उसमें अंकित कर सके। पंडित जी के आग्रह पर उनके सहयोगी आश्चर्य प्रकट करते हुए बोल पडे़ कि पंडित जी आप तो प्रातकाल ९:०० बजे ही कार्यालय आ गये थे तथा रियासत के लेन-देन सम्बन्धी निर्देश देते हुए आपने लेखाबही में उनकी प्रविषिट भी कर दी है। सहयोगियों के इस उत्तर पर पंडित जी स्वयं हतप्रभ हो गये एवं उसकी पुषिट के लिए उन्होंने लेखाबही प्रस्तुत करने के निर्देश दिये। लेखाबही प्रस्तुत होने पर उन्होंने जो भी देखा वह किसी चमत्कार से कम न था। उस दिन का सम्पूर्ण लेखा-जोखा रजिस्टर में विधिवत अंकित था तथा प्रत्येक लेन-देन की प्रविषिट पर उनके स्वयं के हस्ताक्षर भी मौजूद थे। ऐसे चमत्कार को देखकर पंडित जी अपने सहयोगियों को अपने-अपने कार्य में लग जाने का निर्देश देते हुए कुछ समय के लिए एकान्त में ध्यान करने लगे। ध्यानावस्था में ही उन्हें यह बोध हुआ कि पूजा कार्य में व्यस्त होने की अवधि में उनके आराध्य देव पवन पुत्र श्री हनुमान स्वयं उनका भेष धारण कर कार्यालय में उपसिथत हुए थे और प्रतिदिन की भाँति कार्यालय का सम्पूर्ण कार्य उनके द्वारा ही संचालित किया गया। इस तथ्य का आभास होने के पश्चात पं० राम प्रपन्न तिवारी की अपने पूज्य एवं आराध्य के प्रति आस्था इतनी दृढ़ हो गयी कि वह कार्यालय से निकलकर सीधे अयोध्या के लिए प्रस्थान कर गये।
     कालाकांकर से अयोध्या की लगभग २५० कि0मी0 की दूरी पैदल तय करते हुए दूसरे दिन सायंकाल वे सुल्तानपुर के निकट सिथत घने जंगल में प्रवेश कर चुके थे। अंधेरे के कारण उन्हें आगे का मार्ग स्पष्ट दिखायी नही पड़ रहा था। अत: वे किसी वट वृक्ष के नीचे बैठ कर अपनी थकान मिटाने लगे थे। थोड़ी देर पश्चात उन्होंने श्वेत वस्त्रधारी लम्बे बाल व दाढ़ी से युक्त एक संत वेशधारी ब्राह्मण को देखा, जो उनके पास आकर रूक गये एवं कुशल क्षेम पूँछकर उनका आगे का मार्ग प्रशस्त करते हुए कहा कि बेटा तुम इस पगड़ण्डी को पकड़कर सीधे रास्ते पर चलते रहना, तीन दिन के पश्चात तुम्हें अयोध्या नगरी मिल जायेगी।
     पंडित जी ने एक लम्बी एवं गहरी श्वास ली तथा ब्राह्मण साधु की कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उनके द्वारा बतायी गयी पगडंडी पर आगे की ओर चलने लगे। रात-दिन जंगल की यात्रा करने के पश्चात प्रात: ६:०० बजे अयोध्या पहुँचने वाले ही थे कि पुन: उपयर्क्त संत वेशधारी ब्राह्मण उनके सामने प्रकट हो गये। हतप्रभ होकर पंडित जी के मुख से अकस्मात यह शब्द निकल पड़ा कि महाराज आप तो सायं काल जंगल के प्रारम्भ में ही मेरा मार्गदर्शन कर दिया था और अब यहाँ कैसे उपसिथत हो गये। साधु ने पंडित जी को आश्वस्त करते हुए कहा कि बेटा अब यहाँ से आगे का मार्ग भी तो तुम्हें बताना था इसीलिए दोबारा आना पड़ा।
     पंडित जी के सिर पर हाथ रखते हुए ब्राह्मण ने कहा कि बेटा तुम चौथे दिन अयोध्या सिथत सूर्यकुंड पहुँच जाओगे और उसी दिन वहाँ बड़ा रविवार का मेला लगा हुआ पाओगे। सूर्यकुंड पहुँचने पर सरजू नदी में स्नान करके कुछ देर वहीं पर विश्राम कर लेना। विश्राम के पश्चात अगले दिन सरजू नदी के श्री रामघाट पर स्नान करके श्री हनुमानगढ़ी मंदिर पर आ जाना और वहाँ संतों से मोदक बाबा का नाम पूँछकर मेरे पास आ जाना, मैं वहीं पर तुम्हें मिलूँगा। पंडित जी संत वेशधारी (श्री हनुमान) के उपरोक्त आदेश का पालन करते हुए निर्धारित समय पर श्री हनुमानगढ़ी मंदिर पहुँच गये किन्तु पहुँचने से ठीक पांच मिनट पूर्व दोपहर के पूजन के बाद मंदिर का पट बन्द हो चुका था। पंडित जी निराश होकर वहाँ उपसिथत संतो से मोदक बाबा की जानकारी प्राप्त करनी चाही किन्तु कोर्इ भी मोदक बाबा के पास पहुँचने का मार्ग नही बता पाया। निराश होकर के पंडित जी वहीं मंदिर की सीढ़ी पर बैठकर अपने आराध्य देव का स्मरण करने लगे। इसी समय श्री हनुमान जी ने मंदिर के महाराज बिन्दुक गाधाचार्य स्वामी श्रीराम प्रसादाचार्य (बड़ी जगह) को स्वप्न में पंडित जी के आगमन की सूचना देते हुए उन्हें निर्देशित किया कि वे पंडित जी को तुरन्त अपने पास बुला लें तथा अपने परिकर में समिमलित कर लें। बिन्दुक महाराज अस्वस्थ थे अत: उन्होंने अपने उत्तराधिकारी श्री रघुनाथ प्रसादाचार्य दीनबन्धु महाराज को पंडित जी को सादर अपने पास ले आने की आज्ञा दी। दीनबन्धु जी तुरन्त सीढ़ी पर बैठे हुए पंडित जी को बिन्दुक महाराज के पास ले आये। पंडित जी के आगमन पर मंदिर में एक महोत्सव का आयोजन किया गया और उसी महोत्सव में उनका नामकरण श्री रामचरण दास महाराज कर दिया गया। पं० राम प्रपन्न तिवारी ने गुरूदेव को दंडवत करके श्री हनुमान जी के धाम की सात फेरी परिक्रमा की। गुरूदेव राम प्रसाद ने सभी शिष्यों को बुलाकर मंडप की संरचना करायी और विधि-विधानपूर्वक पंचगव्य के साथ चंदि्रका मुदि्रका रामनाम धनुषबाण आदि चारों संस्कार सम्पन्न कराये।
कहि समुझाय प्रमाण महिमा कंठी तिलक की।
युगल गुरूहिं सनमान पादोदक मुख शिरँधरयो।।
कुसुमन माल प्रसाद उठवत आपुहिं गिर परेऊ।
सदगुरू  राम  प्रसाद  लै उठाय  पहिरायेऊ।।
(श्री करूणामणि माला से उदघृत)
     कालाकांकर से पं० राम प्रपन्न तिवारी के अयोध्या प्रस्थान के पश्चात राजा वैरीशाल अत्यधिक व्यग्र एवं दु:खी रहने लगे थे। ज्योंही उन्हें यह समाचार प्राप्त हुआ कि पंडित जी अयोध्या सिथत बड़ी जगह पहुँच चुके हैं त्योही उन्होंने सपरिवार अयोध्या के लिए प्रस्थान कर दिया। अयोध्या पहुँच  कर गुरू राम प्रसाद जी से पंडित राम प्रपन्न तिवारी जी को वापस कालाकांकर लाने हेतु राजा ने हाथ जोड़कर अनुरोध किया तथा इसके एवज में उन्होंने बारह सौ रूपये मासिक व साढे़ तीन सौ बीघा जमीन भी देने का प्रस्ताव रखा। इसी मध्य पंडित जी के माता-पिता व ग्राम गोपालापुर के अन्य कुटुम्ब जन भी अयोध्या पहुँच चुके थे। सभी ने पंडित जी को वापस लाने का अथक प्रयास किया। गुरू राम प्रसाद जी अन्तत: सहमत भी हो गये थे किन्तु इसी समय दोपहर के भोजन का समय  हो चुका था। अयोध्या के सभी साधु-संत उपसिथत होकर पंकितबद्ध भोजन कर रहे थे। इसी समय पंडित राम प्रपन्न तिवारी हाथ में एक पत्तल लेकर साधु-संतों की पतरी में बचे हुए जूठन को एकत्रित करके उसका प्रसाद ग्रहण करने लगे। यह दृश्य देखकर पंडित जी के परिवार के लोग विचलित हो गये। उन्होंने पंडित राम प्रपन्न को घर वापस लाने का अपना इरादा बदलकर चुपके से बिना किसी को बताये हुए अयोध्या से गोपालापुर चले आये। अन्त में राजा वैरीशाल भी निराश होकर कालाकांकर लौट आये।
     स्वामी श्रीराम प्रसादाचार्य के संरक्षण में श्रीराम चरणदास ने सदग्रन्थों में छिपे हुए रस, भाव, अनुभाव एवं संचारी भाव को उदघाटित करने हेतु श्रीचारूशीला बाग पहुँच गये। कुछ समय तक वहीं रहते हुए रास विलास की गहराइयों से परिपूर्ण अनेक ग्रन्थों की रचना की और वहीं गुरू श्री हनुमान जी की प्रेरणा से श्रीचारूशीला जी की महती कृपा प्राप्त की। देशाटन के उददेश्य से कुछ समय वाराणसी में तीर्थवास किया तथा पुन: अयोध्या वापस आकर श्रृंगार रस का अवगाहन करते हुए कवित्त अग्रसागर, अग्ररस, मंजूष अग्रसुचंदिका, अग्ररास बिलास, कौमुदि, अग्रयूथ विनोदिका, अग्रसुषमा, अग्रमंजरि, अग्रसेवा, वो रात, अग्रचालीसा, बहार, पियूष, अग्र बड़ा खड़क, अग्ररस की कुंजिका, परिशालिनी, वो बिमासिका, अग्रगीत, तरंग, दर्शन, पदक, अग्रकलापिका, मारतंड, प्रदीप, तन्त्री, कुसुम, दर्पण, अंजना, अग्ररससारी, महोत्सव, परिणयन्न विवेकना आदि की रचना की। इसके अतिरिक्त प्रतिदिन एक नये पद की रचना करते हुए साधु-संतो के मध्य उसे गा गाकर उन्हें भाव-विभोर करने लगे। बारह वर्ष तक सत्संग करने के पश्चात भक्तमाल कथा का पुराणों से अनुवाद किया। गुरू राम प्रसाद एवं अन्य कतिपय सन्तों के साथ चित्रकूट में कुछ समय तक वास करने के पश्चात पुन: जानकी घाट वापस आ गये तथा श्री हनुमान जी की प्रेरणा से तुलसीकृत रामायण के प्रत्येक काण्ड की संवत-१८६५ में आनंद लहरी नामक टीका की रचना की, जिससे संत समाज अत्यन्त कृतकृत्य हो उठा।
पांच  षष्ठ   वसु   एक   में,  विजयादशमी  भोर ।
आनंद   लहरी   नामकी,   टीका  चली  सुठोर ।।1।।
सकल कांड  एक   संग   में,   टीका   दर्इ   चलाय।
लखि-लखि, सुनि-सुनि मनहिं गुन, संत हृदय हर्षाय।।2।।
(श्री करूणामणि माला से उदघृत सवैया)
शिष्य जीवाराम के अनुरोध पर उन्हें मृदंग वादन करके राम कथा वाचन में प्रवीण किया तथा काशी, विन्ध्याचल एवं चित्रकूट से पधारे हुए अनेकानेक शिष्यों को टीका की रसात्मक व्याख्या सुनाकर उन्हें भी पारंगत किया। अन्त में सरजू नदी के किनारे मचान बनाकर तीन दिन तक मानस पाठ, हवन, ब्रह्मभोज आदि का आयोजन करके अत्यधिक प्रसन्नता एवं आलौकिक सुख की प्रापित की। अन्तत: माघ शुक्ल नवमी तिथि संवत-१८८०, सन-१८३४ र्इ0 में १५० वर्ष की आयु पूर्ण करते हुए करूणामयी दृषिट से अपने चारों ओर बैठे हुए शिष्यों पर एक विहंगम दृषिट डाली और अपने प्रस्थान हेतु आकाश से उतरते हुए एक विमान की ओर इशारा किया और उसी समय अपने दोनों नेत्र सदा के लिए बन्द करके महानिर्वाण की प्रापित की। अत्यधिक संवेदना के साथ भाव-विभोर होते हुए शिष्यों ने उन्हें रसिक विभूति श्री करूणासिन्धु जी महाराज की महाउपाधि से विभूषित करते हुए अपने गुरू अनंत श्री स्वामी श्रीराम चरणदास से अनितम विदा ली।
माघ शुक्ल नवमी तिथी, वसु वसु वसु शीश शाल।
सुमन सेज विश्राम लियो, मघ्य दिवस रविमाल।।1।।
संत रसिक करिहहिं दया, लिखि निज मति अनुसार।
रास रसिक पढि़हहिं, सुनहिं करूणमाल सुधार।।2।।
(श्री करूणामणि माला से उदघृत)