Thursday 3 October 2013

त्रिकोण आसन

खड़े होकर आसन करने की मुद्रा में किया जाने वाला त्रिकोण आसन सरल आसनों की श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण आसन है। इस आसन के दौरान त्रिकोण की मुद्रा बनती है इसीलिए इसे त्रिकोण आसन कहते हैं।
विधि :-
१- सर्वप्रथम आसन पर अपने दोनों पैरों को कंधों से अधिक दूरी देते हुए फैला कर खड़े हो जाएँ । कमर एवं गर्दन सीधी रखें। 
२- दाहिने पैर के पंजे को दाहिनी तरफ घुमा लें। सांसों को सामान्य करते हुए दोनों हाथों को ऊपर उठाते हुए कंधे की सीध में उन्हें फैला लें।
३-अब कमर के ऊपरी भाग को गर्दन के साथ  दाहिनी तरफ मोडते हुए तथा साँस बाहर निकालते हुए  झुक कर  बाएं हाथ के अंगूठे से दाहिने पैर के अंगूठे को स्पर्श करें। अब  गर्दन को बायीं तरफ मोडते हुए दाहिने हाथ के अंगूठे को देखते रहें।५-१० सेकेण्ड तक  इस स्थिति में रुकें।
४- पुनश्च साँस भरते हुए दोनों हाथो को वापस ले आयें और अपनी सांसों को सामान्य कर लें।
५- अब अपने  बाएं पंजे को  बायीं तरफ घुमा लें एवं सांसों को सामान्य कर लें ।
६- अब दोनों हाथों को भुजाओं की सीध में ऊपर  उठायें तथा कमर के ऊपरी भाग को गर्दन सहित  बायीं तरफ घुमाते हुए एवं साँस को  बाहर निकालते हुए  दाहिने हाथ के अंगूठे से बाएं पैर के अंगूठे को स्पर्श करें।  ५-१० सेकंड इस स्थिति में रुकें तथा गर्दन दाई तरफ मोडते हुए बाये हाथ के अंगूठे को देखते रहें। 
७- अब श्वास भरते हुए दोनों हाथो को वापस ले आयें। 
८- त्रिकोण आसन का यह एक चक्र पूर्ण हुआ। कम से कम दो बार इस प्रक्रिया को क्रमशः दुहरायें।
परिणाम :-
१- इस आसन को नियमित रूप से करने से अगल बगल की मांसपेशियों पर प्रभाव पड़ता है। 
  २- इस आसन को करने से कलाइयां मजबूत हो जाती हैं तथा पैरों के पिछले हिस्से में रक्त संचार सामान्य रूप से  होने लगता है। 
३- तंत्रिका तंर को मजबूत करते हुए यह आसन अवसाद की पीड़ा को कम करता है। 
४- यह आसन पाचन तन्त्र में सुधार लाता है। 
५- मोटापा कम करने में त्रिकोण आसन सहायक माना गया है। 

Wednesday 18 September 2013

जलनेति

मनुष्य के शरीर में दो समानांतर ध्रारायें प्रवाहित होती हैं /प्रथम प्राणशक्ति जो दाहिने नासिका छिद्र से और दूसरी मानसिक शक्ति जो बाएं नासिका छिद्र से प्रवाहित होती है /यह दोनों क्रमशः सूर्य नाड़ी एवं चन्द्र नाड़ी का प्रतिनिधित्व करती हैं /हठ योग के अन्तर्गत षटकर्म का वर्णन मिलता है /यह एक ऐसी तकनीक है जिससे शरीर की शुद्धि होती है और हड्डियों के भीतर व्याप्त विषाक्त तत्व बाहर निकल जाते हैं /जलनेति इसी प्रकार की एक वैज्ञानिक क्रिया है जो सामान्य व्यक्ति भी सावधानीपूर्वक कर सकता है /जलनेति योग की एक क्रिया है। यह योग की सप्त क्रियायों में से एक है। इसके तहत नैजल ट्रैक की सफाई के लिए नासिका के एक छिद्र से हल्के नमक युक्त पानी को अन्दर प्रविष्ट कराया जाता है और उसे दूसरे नाक छिद्र से बाहर निकाला जाया है। नासिका में पानी प्रविष्ट कराने के लिए एक विशेष पात्र का प्रयोग किया जाता है जिसे नेति पात्र कहते हैं।  
विधि :-
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         -सावधानी
          जलनेति का पात्र साफ और सूखा होना चाहिए। इसे वैक्टीरिया मुक्त करने के लिए गर्म पानी में ठीक से उबल लें और अपने हाथों को ठीक से साफ करके जलनेति क्रिया प्रारम्भ करें। सम्भव हो तो जलनेति के लिए परम्परागत पत्रों की जगह ऐसे वैज्ञानिक पात्र का प्रयोग करें जिसमें बल्ब सीरीज लगी हो अथवा स्क्वीज बाटल के रूप में हों। 





प्राणायाम

प्राणायाम शब्द प्राण एवं आयाम दो शब्दों से मिलकर बना है /प्राण का अर्थ श्वास ,जीवन ,चैतन्य ,ऊर्जा एवं जीवनीशक्ति होता है / इस प्रकार प्राणायाम को श्वास का विज्ञान भी  कहा जा सकता है ./ सामान्यतः प्राणायाम को सांसों के नियन्त्रण करने की क्रिया के रूप में जाना जाता है / इस प्रकार प्राणायाम श्वास लेने की  सर्वोत्कृष्ट क्रिया है जिसके माध्यम से वायु हमारे फेफड़ों में प्रविष्ट होकर अतिरिक्त ऊर्जा का संचार करती है/ दूसरे शब्दों में प्राणायाम, प्राण अथवा जीवन ऊर्जा के विस्तार एवं नियन्त्रण की एक क्रिया के रूप में जानी जाती है /
     योगशास्त्र में प्राणायाम के निम्नलिखित चार सोपान वर्णित हैं :-
  १-पूरक अर्थात श्वास को अंदर लेना /
  २-रेचक अर्थात श्वास को बाहर छोड़ना /
  ३- अन्तर्कुम्भक अर्थात श्वास लेने  के पश्चात यथासम्भव उसे अंदर रोकना /
  ४- बहिर्कुम्भक अर्थात श्वास को  निकालने के पश्चात् यथासम्भव कुछ देर तक बाहर रोके रखना /
   मानव शरीर में अन्नमय कोश ,मनोमय कोश ,प्राणमय कोश ,विज्ञानमय कोश ,एवं आनन्दमय कोश अन्तर्निहित होते हैं /शक्ति के सूक्ष्मतम रूप में वायु सर्वप्रमुख है /अतः हठयोग प्रदीपिका में  इसे उदान, अपान,समान ,प्राण ,तथा व्यान  पाँच श्रेणियों में विभक्त किया गया है /श्वास लेना  शरीर की एक महत्वपूर्ण क्रिया है क्योंकि जीवन श्वास से ही संचालित होता है /अतः यौगिक प्राणायाम यह प्रमाणित करता है कि मनुष्य जिस प्रकार और जितनी मात्रा  में साँस लेता है उतना ही प्रभाव प्रत्यक्ष रूप में शरीर एवं मन दोनों पर पड़ता है और यही प्रभाव ही मनुष्य के जीवन का निर्धारण करता है /  इस प्रकार प्राणायाम का प्रमुख उद्देश्य है फेफड़ों का पूर्ण उपयोग किया जाना और जीवनी शक्ति का अधिकाधिक संचय किया जाना /अधिक प्राण से शरीर की कोशिकाओं ,हड्डियों ,मांसपेशियों, रक्त एवं सामान्य स्वास्थ्य में सुधार होता है /प्राणायाम का दूसरा उद्देश्य है श्वास को धीरे धीरे लेना और उसके व्यवस्थित होने में सहायक होना /स्वामी सत्यानन्द जी का कथन है कि जो लोग श्वास तेजी से और अनियमित रूप से लेते हैं उनका शरीर एवं मन दोनों दुर्बल हो जाता है जिसके कारण वे घबराहट महशूस करते हैं / ऐसे लोगों की आयु भी कम हो जाती है /यौगिक श्वास क्रिया का तात्कालिक प्रभाव मन पर पड़ता है अर्थात धीरे धीरे श्वास लेने से चिंता एवं तनाव रहित होकर चित्त को एकाग्र करने में सहायता मिलती है /स्वामी शिवानन्द जी का कथन है "there is an intimate connection between the breath ,nerve currents and control of the inner prana or vital forces .prana becomes visible on the physical plane as motion and action ,and on the mental plane as thought .pranayam is the means by which a yogi tries to realize whithin his individual body the whole cosmic nature ,and attempts to attain perfection by attending all the powers of the univers ."
हठयोग एवं राजयोग में कुम्भक प्राणायाम पर विशेष बल दिया गया है किन्तु मेरा अपना मन्तव्य यह है कि सामान्य व्यक्ति अथवा बीमार व्यक्ति को कुम्भक कदापि नहीं करना चाहिए /कुम्भक क्रियाएं सिद्ध योगियों के लिए हैं जो प्राणायाम क्रिया में पारंगत होते हैं /सामान्य अथवा गृहस्थ व्यक्ति के लिए नाड़ीशोधन ,भ्रामरी ,शीतली प्राणायाम ही पर्याप्त हैं /१०-१५ सेकंड तक कुम्भक क्रिया करने में कोई हानि नहीं है किन्तु दीर्घ कुम्भक हेतु विशेष पात्रता होना अनिवार्य है /
प्राणायाम हेतु सामान्य निर्देश :-
योगशास्त्र में प्राणायाम हेतु अनेकानेक विधियों का वर्णन मिलता है किन्तु सामान्य एवं गृहस्र्थ व्यक्ति के लिए निम्नांकित बातों  पर विशेष ध्यान देना चाहिए :-
१- समय ;-प्राणायाम का समय प्रातः काल सूर्योदय के पूर्व अथवा सायंकाल सूर्यास्त के पश्चात का समय उपयुक्त माना गया है /
२- शारीरिक शुद्धता :- भोजन के आठ घंटे बाद खाली पेट अर्थात शौच क्रिया के पश्चात  स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनकर किया गया प्राणायाम उपयुक्त होता है किन्तु  विशेष परिस्थितियों में मल मूत्र त्याग करने के पश्चात् हाथ पैर धो करके भी इसे किया जा सकता है / 
 ३-भोजन :-शरीर में रक्त भोजन के सार तत्वों से निर्मित होता है /ग्रंथियां स्वस्थ और मजबूत रक्त से भोजन लेकर निर्मित होती हैं / मांस ,अंडे ,घी ,मक्खन ,मिठाइयाँ दैनिक भोजन में सम्मिलित नहीं होनी चाहिए / हल्का एवं सुपाच्य भोजन लेना चाहिए /फलों का अधिकाधिक उपभोग करना चाहिए /
४-   स्थान:- प्राणायाम के लिए उपयुक्त स्थान हरियाली युक्त पार्क ,छत अथवा खुली हुई बालकनी मानी गयी है /इसके अभाव में कमरे के अंदर दरवाजे एवं खिड़कियाँ खोलकर भी प्राणायाम कर सकते हैं किन्तु यह ध्यान रहे कि कमरा शीलनरहित,स्वच्छ एवं साफ़ होना चाहिए /
            

Wednesday 4 September 2013

मंडूक आसन

मंडूक आसन  से यह ध्वनित होता है कि इस आसन में मेढक की तरह आकृति बनायी जाती है। यह सामान्य आसन की  श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण आसन है।  प्रातः अथवा सायंकाल कभी भी खाली पेट इस आसन को किया जा सकता है।
विधि :-
 १--किसी पार्क अथवा खुले हुए वातावरण में कम्बल अथवा चटाई पर वज्रासन में बैठ जाएँ। 
२-अपनी सांसों को सामान्य करते हुए कमर और गर्दन सीधी रखते हुए सामने की ओर किसी बिंदु को  देखें।
३-दोनों हाथों की चारों अँगुलियों को मोड़ते हुए मुट्ठी को बंद कर उसे नाभि के अगल बगल इस प्रकार से रखें कि अंगुलियाँ पेट से लगी रहें और दोनों मुट्ठियाँ एक दुसरे को स्पर्श करती रहें ।
४-  अब एक लम्बी साँस भरें और धीरे धीरे साँस निकालते हुए आगे की ओर इस प्रकार  झुकें कि मस्तक आसन को स्पर्श कर ले  किन्तु यह ध्यान रहे कि इस दौरान आपका नितम्ब एडियों से चिपका रहे। यदि ऐसा सम्भव न हो तो उसी सीमा तक झुके जहाँ तक एडी और नितम्ब एक दूसरे को स्पर्श करते रहें।  
५- अपनी सांसों को बाहर की ओर रोकते हुए अर्थात बाह्य कुम्भक लगाते हुए थोड़ी देर तक  रुकें और पुनः साँस भरते हुए धीरे धीरे ही  उठें। 
६-इस क्रिया को कम से कम पांच  बार दुहरायें।  
सावधानी :-
इस आसन को भोजन के आठ घंटे बाद ही करें।  आगे झुकते समय उसी क्रम में साँस को बाहर निकालते जाएँ तथा उठते समय उसी क्रम में साँस भरते जाएँ। आगे झुकने के बाद जितनी देर तक आप रुके रहें उतना ही लाभकारी होगा। यदि आगे झुकते समय शरीर के किसी अंग में दर्द अथवा तनाव महशूस हो तो इस आसन को कदापि न करें और वज्रासन में ही बैठे रहें । 
परिणाम :-
१- इस आसन को करने से रीढ़ में लोच पैदा होती है तथा रक्त प्रवाह संतुलित रहता है। 
२-मंडूक आसन को  करने  से पेट की चर्बी निरंतर  कम होती जाती है./
३-शरीर को सुडौल एवं आकर्षक बनाने में इस आसन का विशेष योगदान होता है।   

Friday 30 August 2013

श्वसन क्रिया एवं प्रभाव

शरीर को जीवंत बनाये रखने में श्वसन क्रिया का महत्वपूर्ण योगदान होता है।  श्वसन क्रिया ही मनुष्य को जीवनी शक्ति प्रदान करती है और उसकी गति से ही मनुष्य की आयु का निर्धारण होता है ।श्वसन क्रिया के एकमात्र केंद्र हमारे फेफड़े हैं जिनकी क्षमता एक बार में तीन से चार लीटर वायु अन्दर लेने व बाहर निकालने की है।प्रायः यह देखा जाता है कि पर्याप्त वायु जिसे ऑक्सीजन की भी संज्ञा दी जाती है ,के अभाव में शरीर प्रायः अस्वस्थ हो जाता है। फेफड़ों की निर्धारित क्षमता के अनुरूप पर्याप्त  वायु /ऑक्सीजन ग्रहण करने से मनुष्य को दीर्घायु की प्राप्ति होती है।
श्वसन क्रिया में वैज्ञानिक परिवर्तन करने की विधि को ही प्राणायाम कहा जाता है। दूसरे शब्दों में श्वसन की कला को ही प्राणायाम की संज्ञा दी गयी है।  नासिका में वायु के प्रवाह को स्वर माना जाता है। बायीं नासिका के प्रवाह को इड़ा नाडी  तथा दायीं  नासिका के प्रवाह को पिंगला नाड़ी कहते हैं।   इड़ा नाडी मानसिक ऊर्जा तथा पिगला नाड़ी प्राण ऊर्जा से सम्बद्ध मानी जाती है./ मानसिक असंतुलन की स्थिति में इडा नाड़ी आक्रामक एवं   पिंगला नाड़ी अतिक्रियाशील हो जाती है। प्राणायाम के माध्यम से हम श्वसन की दिशा व दशा दोनों में अभूतपूर्व परिवर्तन कर सकते हैं। प्रायः सामान्य श्वसन क्रिया के पश्चात ही प्राणायाम किया जाता है। सामान्यतः प्राणायाम की निम्नांकित तीन विधियाँ  मानी गयी हैं :-
१- संतुलन प्राणायाम :-इस प्राणायाम में नाड़ी शोधन क्रिया को सम्मिलित  किया गया है जिसमें क्रमशः धीरे- धीरे श्वास लेने व छोड़ने की प्रक्रिया निर्धारित की गयी है। इस क्रिया से इड़ा व पिंगला दोनों नाड़ियाँ  समान रूप से प्रभावित होती हैं। शरीर और मन दोनों के असंतुलन को इस क्रिया के माध्यम से दूर किया जा सकता है।
२- प्रशान्तक प्राणायाम :-इस प्राणायाम के द्वारा शरीर और मन को शांत करते हुए प्राण ऊर्जा में अतिशय वृद्धि की जा सकती है। यह प्राणायाम तंत्रिका तन्त्र को प्रेरित करता है जिससे ध्यान की अन्तर्मुखी क्रिया सम्पादित होती है। इस श्रेणी में शीतली, शीतकारी,भ्रामरी व चन्द्र्भेदी प्राणायाम आते हैं।
:- शक्तिवर्धक प्राणायाम :- इस प्राणायाम द्वारा स्थूल एवं सूक्ष्म तलों में ताप उत्पन्न होता है जिससे शक्ति में असाधारण वृद्धि स्वतः हो जाती है। इस श्रृखला के प्राणायाम से आलस्य व निष्क्रियता दूर होकर चैतन्य एवं सक्रियता की प्राप्ति होती है। इस श्रेणी में अग्निसार ,भस्त्रिका ,कपालभाती एवं सूर्यभेदी प्राणायाम आते हैं। 
     सामान्यतः व्यक्ति प्रत्येक मिनट में १५-२० बार साँस लेता व छोड़ता  है /  इस प्रकार प्रतिदिन वह २१६०० बार साँस लेता व छोड़ता है। कुत्ता एक मिनट में ६० बार साँस लेता व छोड़ता है जबकि हाथी  ,सांप तथा कछुवा प्रत्येक मिनट में २-३ बार साँस लेते व छोड़ते हैं। जल्दी जल्दी साँस लेने व छोड़ने के कारण ही कुत्ते की सामान्य आयु १०-१५ वर्ष होती है जबकि हाथी,सांप तथा कछुवा की आयु सौ वर्ष या उससे भी अधिक होती है। इस प्रकार साँस लेने व छोड़ने की गति व स्थिति के अनुसार आयु का निर्धारण होता है। साँस लेने व छोड़ने का हमारे मन एवं भावों से गहरा सम्बन्ध है। अत्यधिक श्रम ,भय ,क्रोध ,व तनाव की स्थिति में सांसों की गति बहुत तेज हो जाती है। लययुक्त गहरी एवं धीमी श्वसन प्रक्रिया से मन को शांत, स्थिर एवं एकाग्र बनाया जा सकता है जबकि अनियमित और लम्बी लम्बी अथवा जल्दी जल्दी  साँस लेने से मन अशांत हो जाता है। इसी दशा में प्राणायाम की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। प्राणायाम के अभ्यास के पूर्व एक लम्बी एवं गहरी साँस लेकर श्वसन क्रिया को सामान्य कर लेनी चाहिए तत्पश्चात निम्नांकित तीन विधियों का हमें अनुसरण करना चाहिए :-
उदर श्वसन :-श्वास  लेना और छोड़ना श्वसन की प्रारम्भिक क्रिया है। उदर से साँस लेने की क्रिया को उदर श्वसन कहते हैं। तनाव, मादक पदार्थों के सेवन, गलत ढंग से बैठने,एवं तंग कपड़े पहनने के कारण पेट से साँस लेने की क्षमता कम हो जाती है जिसके कारण अनेकानेक रोगों का सामना करना पड़ता है। उदर श्वसन चलते- फिरते अथवा लेटे हुए कभी भी किया जा सकता है। इसके लिए सर्वप्रथम पद्मासन अथवा वज्रासन जिसमें भी सुविधा हो ,बैठ जाएँ तत्पश्चात कमर एवं गर्दन सीधी रखते हुए दोनों आँखों को बंद करके एक गहरी श्वास लें और छोड़ें। अपनी सांसों को सामान्य करके अब गहरी साँस अंदर लेते हुए पेट को बिना श्रम के अधिकतम फुलाएं। इस दौरान छाती की मांसपेशियों को थोडा आराम दें। फिर साँस को बाहर निकालते हुए पेट को अधिकतम पिचकाएँ। पांच बार यही क्रिया करें।      
वक्षीय श्वसन :- इस श्वसन क्रिया में साँस लेते हुए वायु को छाती में ही भरा जाता है। गहरी साँस लेकर फेफड़ों को अधिकतम फुलाया जाता है। इस स्थिति में पसलियाँ ,गर्दन व हंसुली ऊपर की ओर उठती है किन्तु पेट एवं पेडू को बिलकुल अछूता रखा जाता है। साँस बाहर निकालते हुए छाती एवं पसलियों को धीरे- धीरे सामान्य  किया जाता है। 
यौगिक श्वसन :-इसके लिए सर्वप्रथम पद्मासन ,सिद्धासन अथवा पालथी मारकर किसी भी स्थिति में बैठते हुए रीढ़ एवं गर्दन को सीधा करते हुए आँखों को बंद कर लें। अब साँस अंदर लेते हुए पेट को फुलाएं और तत्पश्चात सीने  को फुलाएं। साँस बाहर निकालते हुए पहले सीने को पिचकाएँ तत्पश्चात पेट  को पिचकाएँ।  इस क्रिया को लगभग ५ मिनट तक करें। यह सर्व श्रेष्ठ श्वसन क्रिया है./  इससे सर्दी ,जुखाम एलर्जी ,पेट के रोग तथा कफ सम्बन्धी समस्याओं से मुक्ति मिलती है।               

Sunday 11 August 2013

ध्यान

ध्यान मानव जीवन की आध्यात्मिक उपलब्धि का एक ऐसा साधन है जहां से सत,चित एवं आनंद की सहज अनुभूति प्राप्त की जा सकती है / अपने दैनिक जीवन में हम अनेकानेक प्रकार की समस्याओं से ग्रस्त होते हैं /इन समस्याओं का सहज निदान ध्यान के माध्यम से प्राप्त करके अपने जीवन को सुखमय बना सकते हैं /ध्यान का तात्पर्य परमपिता परमेश्वर के प्रति समर्पण एवं उनकी सहज अनुभूति से है /अपने जीवन के व्यस्त क्षणों में १५-२० मिनट निकालकर यदि हम एकांत  में एकाग्र होकर स्थिरतापूर्वक पद्मासन अथवा सुखासन में बैठकर ईश्वर की अनुभूति कर लेते हैं, तो हमारे दैहिक ,दैविक एवं भौतिक तीनों प्रकार के कष्ट  स्वयमेव दूर हो सकते हैं और मन को असीम आनंद की प्राप्ति भी  हो जाती है / भारतीय योगशास्त्र में ध्यान का सर्वाधिक महत्व बताया गया है / सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ध्यान के लिए कोई भी व्यक्ति चाहे वह  बालक हो ,प्रौढ़ हो अथवा वृद्ध हो आसानी से अपने को इस मार्ग पर तत्पर कर सकता है / यहाँ तक कि रोगी व्यक्ति भी इसका सम्पूर्ण लाभ प्राप्त कर सकता है /
विधि :-
१-स्वच्छ एवं खुले वातावरण में पद्मासन अथवा सुखासन जिसमें भी सुविधा हो ,स्थिरतापूर्वक बैठ जाएँ I
 २- अपनी दोनों हथेलियाँ को घुटनों पर ज्ञानमुद्रा में रखें I अब दोनों आँखों को पूर्णतयः बंद कर लें और ध्यान आज्ञाचक्र [ दोनों भौहों के बीच ] पर केन्द्रित करते हुए अपने आराध्यदेव की मनोहर छवि  का स्मरण करें /  
३- आज्ञाचक्र पर आपको विभिन्न रंग के फौव्वारे अथवा प्रकाश बिंदु उभरते हुए दिखाई पड़ेंगे / उन्हें आप एकाग्र चित्त होकर निरंतर देखते रहें  तथा इस दौरान  ॐ  शब्द का मानसिक उच्चारण भी करते रहें  /
४- ध्यान  की यह अवधि १५ से २० मिनट अथवा सुविधानुसार अधिक समय तक भी हो सकती है /
५- १५-२० मिनट के पश्चात मध्यम स्वर में ॐ शब्द का उच्चारण प्रारम्भ करें और ५ मिनट तक इसे करते रहें ६- तत्पश्चात नासिका से ॐ शब्द का उच्चारण ५ मिनट तक करें /
७-उक्त क्रिया के बाद धीरे धीरे अपनी आँखों को खोलें और दोनों हथेलियों से मुखमंडल को स्पर्श करते हुए आसन से उठ जाएँ /
परिणाम :- 
 प्रायः ध्यान को मन का व्यायाम कहा जाता है / ध्यान से मन की एकाग्रता बनी रहती है तथा नैसर्गिक आनंद की प्राप्ति भी होती है / ध्यान प्रकारान्तर से उच्च  रक्तचाप को नियंत्रित करता है /  निरंतर ध्यान से ईश्वर के प्रति समर्पण के भाव जागृत होते हैं जिससे आत्मानुभूति का बोध होता रहता है / पूर्ण मनोयोग से ॐ शब्द के उच्चारण से ध्वनि परमात्मा तक सीधे पहुँचने लगती  है /इस तथ्य को एक उदाहरण द्वारा समझने का प्रयास कीजिये /किसी जलाशय के किनारे बैठकर स्वच्छ जल में पत्थर फेंकने का सौभाग्य आपको भी मिला होगा और आपने देखा होगा कि पत्थर फेंकते ही जल में गोलाकार लहरें उठती हैं /यदि एक ही जगह लगातार पत्थर फेंकते रहें तो वे गोलाकार लहरें धीरे- धीरे बड़ा आकार  लेकर आगे बढने लगती हैं और थोड़ी देर बाद ही वे दूसरे किनारे को छूने लगती हैं / इसी प्रकार आपके मुख से निकली हुई ॐ ध्वनि भी  धीरे- धीरे परमात्मा तक पहुंच जाती है और ईश्वरानुभूति का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है  / 

Wednesday 24 July 2013

नौकासन

नौकासन सरल आसनों की श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण आसन है / इसे नावासन भी कहते हैं / इस आसन को करते समय नाव अथवा नौका के समान आकृति बनने के कारण इसे नौकासन की संज्ञा दी गयी है /

विधि :-

१-  सर्वप्रथम आसन पर पीठ के बल सीधे लेट जाएँ / इस दौरान दोनों पैर आपस में मिले रहेंगे तथा दोनों हाथों को सिर के पीछे फैला लें /
२- अब एक लम्बी एवं गहरी साँस भरें और उसे धीरे धीरे बाहर निकाल दें /
३- श्वास भरते हुए दोनों हाथ आगे करके धीरे धीरे  उठें और श्वास निकालते हुए दोनों हाथों से अपने दोनों पंजों अथवा अंगूठों  को पकड़ें  तथा पैर सीधा आसन पर रखते हुए नासिका अथवा मस्तक को आसन से स्पर्श कराएं /
 ४- - पुनश्च श्वास भरते हुए अपने दोनों पैरों को एक साथ ऊपर उठायें और श्वास निकालते हुए सिर के पीछे ले जाकर अंगूठों को आसन से स्पर्श कराएँ /
५-- उपरोक्त क्रियाएं शीघ्रता से बिना रुके हुए करें /
६- - इस क्रम को सुविधानुसार पांच अथवा दस बार दुहरायें /
सावधानी :-
इस आसन को खाली पेट अथवा भोजन के आठ घंटे पश्चात ही करें /
२-आगे झुकते समय यदि नासिका एवं मस्तक घुटना  से स्पर्श नहीं कर पा रहा है तो यथासम्भव उसे घुटने के पास ले जाएँ एवं अनावश्यक दबाव ना दें / घुटने को उठाकर नासिका से न स्पर्श कराएँ /
३- आसन करते समय यदि किसी अंग विशेष में दर्द या तनाव महशूस हो तो यह आसन कदापि ना करें /
४- दोनों पैर एवं हाथ एक साथ सीधे  ऊपर उठाना चाहिए और सीधे ही नीचे आसन पर लाना चाहिए  /
परिणाम :- 
१- इस आसन के नियमित रूप से करने पर रीढ़ की हड्डियों की बराबर मालिश होती रहती है /
२- इस आसन से पाचन तंत्र सुद्रढ़ व सशक्त बनता है /
३- यह आसन पेट की मांसपेशियों को कम करता है तथा पेट को आगे की ओर निकलने से रोकता है /
४-यह आसन कमर दर्द दूर कर उसमें लोच पैदा करता है /
५- इस आसन  से रीढ़ की हड्डियाँ मजबूत व लचीली बन जाती हैं /

Wednesday 26 June 2013

अर्धचन्द्रासन

          अर्धचन्द्रासन का अर्थ होता है आधा और चन्द्रासन का अर्थ  चन्द्र के समान किया गया आसन / इस आसन को करते समय शरीर की स्थिति अर्धचन्द्र के समान दृष्टिगत  होती  है/ इसलिए इसे अर्धचन्द्रासन कहते हैं \ इस आसन की स्थिति त्रिकोण के समान बनती है / इसीलिए इसे कुछ लोग त्रिकोणासन  भी कहते हैं /  यह आसन प्रायः खड़े होकर किया जाता है /
विधि :-
सर्वप्रथम दोनों पैरो की  एड़ी एवं पंजो को मिलाकर खड़े हो जाये तथा दोनों हाथ कमर से सटे हुए गर्दन सीधी और नजरें सामने रखें ! अब दोनों टांगों को तान कर पैरों के पंजो को फैलाएं ! इसके बाद दायें हाथ को ऊपर उठाते हुए कंधे के समानांतर लायें फिर अपने  बाजू को  ऊपर उठाते हुए कान के सटा दें / इस दौरान ध्यान रहे कि बायाँ हाथ आपकी कमर से  सटा रहे / फिर  दायें हाथ को ऊपर सीधा कान और सिर से सटा हुआ रखते हुए  कमर से बाई ओर धीरे धीरे  झुकाते जायं / इस दौरान आपका बायाँ हाथ स्वतः नीचे खिसकता  जायेगा /  यह ध्यान रहे कि बाएं हाथ की हथेली बाएं पैर से अलग न हटने पायें / जहाँ तक हो सके बाएं ओर झुकें, फिर इस अर्ध चन्द्र की स्थिति में ३०-४० सैकड़ों तक रहें / वापस आने के लिए धीरे-धीरे  पुनः सीधे खड़े हो  जाएँ / अब  कान और सिर से सटे हुए हाथे को पुनः हाथों  के सामानांतर ले आयें तथा  हथेली को भूमि की ओर सरकाते हुए हाथ को कमर के सटा लें / इस प्रकार  दायें हाथ से बायीं ओर  झुक कर किये गए अर्धचन्द्रासन की  यह पहली स्थिति है / अब इसी आसन को बाएं हाथ से दायी ओर झुकते हुए करे तत्पश्चात पुनः विश्राम की अवस्था में आ जाये/ उक्त आसन को ४-५ बार करने से विशेष  लाभ होगा / 
 लाभ :- 
-इस आसन को नियमित रूप से करने से घुटने के ब्लैडर, गुर्दे, छोटी आंत लीवर, छाती, फेफड़े एवं गर्दन तक का भाग एक साथ प्रभावित होता है, जिससे ये अंग निरोगी व स्वस्थ रहते हैं ! श्वास , उदर , पिंडलियों, पैरों, कंधो, कुहनियो और मेरूदंड सम्बन्धी रोगों में लाभ मिलता है / यह  आसन कटि प्रदेश को लचीला बनाकर पार्श्व भाग की चर्बी  को कम करता है/पृष्ठ भाग की मासपेशियों पर बल पड़ने से उनका स्वास्थ सुधरता है और छाती का विकास करता है / 
 सावधानी :-
-इस आसन को खाली पेट ही करें तथा  यदि कमर में दर्द हो तो यह आसन योग चिकित्सक की सलाह अनुसार ही करें /