वर्तमान भौतिकवादी युग में भागमभाग की जिंदगी से मनुष्य तनावग्रस्त तो रहता ही है साथ ही साथ उच्च रक्तचाप जैसी बीमारी से भी ग्रस्त होता जा रहा है जिसके कारण उसे रात में अच्छी नींद भी नहीं आ रही है तथा मानसिक तनाव,मानसिक रोग व दुर्बलता का शिकार भी होना पड़ रहा है। उच्च रक्तचाप के लक्षण तब प्रगट होते हैं जब नसों अथवा रक्तवाहिनी धमनियों में व्यवधान उत्पन्न होने लगता है और रक्तप्रवाह असामान्य हो जाता है। ऐसी स्थिति में हृदय को अधिक जोर लगाकर रक्त को शरीर के समस्त अंगों में प्रेषण के लिए पम्प करना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप रक्तवाहिनियां कठोर हो जाती है और उनमें स्थान स्थान पर अवरोध उत्पन्न हो जाता है। कोलेस्ट्रॉल के जमने के कारण खून गाढ़ा होने लगता है जिसके कारण रक्तनलिकाओं का मार्ग स्वतः अवरुद्ध हो। इस अवरुद्ध मार्ग से रक्त संचारित करने के लिए हृदय पर अधिक दबाव पड़ता है। इसी स्थिति को हाइपरटेंशन अथवा उच्च रक्तचाप कहा जाता है। उच्च रक्तचाप के कारण ही ब्रेन हैमरेज ,ह्रदयाघात की स्थिति का सामना करना पड़ता है।
उच्च रक्तचाप का अभिप्राय हृदय की धड़कन के साथ रक्त धमनियों में धकेलने पर उनकी दीवारों पर पड़ने वाले दबाव से है। यदि यह दबाव निरन्तर सामान्य स अधिक रहता है तो उसे उच्च रक्तचाप की संज्ञा दी जाती है। यद्यपि व्यक्ति के रक्तचाप की स्थिति एक जैसी नहीं रहती है बल्कि यह घटता बढ़ता रहता है। उदाहरण के लिए जब वह सोता है तो रक्तचाप निम्न स्तर पर आ जाता है और जब वह जाग्रत अवस्था में रहता है तब अपेक्षाकृत उसमें वृद्धि हो जाती है। रक्तचाप बढ़ने का कारण अधिक क्रियाशीलता,एक्साइटिड,तनाव,क्रोध आदि भी हो सकता है। यदि रक्तचाप हमेशा सामान्य से अधिक रहता है तो यह अवस्था स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मानी जाती है। वैज्ञानिकों का मत है कि एस टी के जीन रक्तचाप को बढ़ाने में सहायक होती है क्योंकि यह जीं एक प्रोटीन का निर्माण करती है जो किडनी के माध्यम से रक्त में नमक को नियंत्रित करने की प्रक्रिया को प्रभावित करती है। रक्तचाप की वृद्धि तभी होती है जब खून में नमक की मात्रा बढ़ जाती है। तनाव भी उच्च रक्तचाप का प्रमुख कारक माना जाता है क्योंकि कोलेस्ट्रॉल यह स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कोलेस्ट्रॉल बढ़ने का प्रमुख कारण अम्लप्रधान आहार एवं श्रमरहित जीवनशैली है।
उच्च रक्तचाप के कारण :-
उच्च रक्तचाप का प्रमुख कारण आवश्यक मात्रा से अधिक भोजन करना ,अधिक वसा व चिकनाई वाले पदार्थों ,टेल हुए भोजन ,नमकीन पदार्थ,चाय व काफी का सेवन ,धूम्रपान,मद्यपान करना है। मधुमेह ,गठिया ,दमा ,या किडनी का विकार होना भी इसका कारण बन जाता है। मानसिक चिंता ,तनाव ,अशांत जीवन ,भागदौड़ की दिनचर्या ,पर्याप्त गहरी नींद न लेना ,लगातार लम्बे समय तक एलोपैथिक दवाईयां लेना आदि हैं। वंशानुगत ,मोटापा भी इसका कारण माना जाता है। वैज्ञानिकों का मत है कि इसका प्रधान कारण अस्त व्यस्त जीवन शैली व अपौष्टिक भोजन लेना है। प्राकृतिक ,सहज व सदा जीवन से दूर होकर मनुष्य बनावटी व अप्राकृतिक जीवन शैली अपनाने लगा है जिसके कारण दुःख,रोग व तनावपूर्ण जीवन का सामना उसे करना पद रहा है। शारीरिक श्रम के स्थान पर अधिक मानसिक श्रम करना ,विलासितापूर्ण जीवन के सभी उपकरणों का प्रयोग करना , सात्विक भोजन के स्थान पर फ्रिज का बासी भोजन ,फ़ास्ट फ्रूड का सेवन ,गरिष्ठ व तला भुना भोजन की प्राथमिकता आदि से कब्ज,कोलेस्ट्रॉल का बढ़ना ,रक्तधमनियों में अवरोध उत्पन्न होना तथा रक्तवाहिनी नलिकाओं में अवरोध उत्पन्न होना ,जैसी समस्याओं का सामना उसे करना पड़ता है।
स्वस्थ व्यक्ति के लिए सामान्यतः १३० /८० अथवा १२० /८० एम एम एच जी रक्तचाप होना चाहिए। उच्च रक्तचाप में यह स्तर १६० /१०० अथवा इससे भी अधिक २०० /१२० एम एम एच जी तक पहुँच जाता है। कभी कभी इससे भी ऊपर रक्तचाप पंच जाता है तभी यह जानलेवा बन जाता है। दिल के संकुचन की क्रिया को सिस्टोलिक तथा दिल के फैलने की क्रिया को डायस्टोलिक कहा जाता है प्रायः बच्चों का रक्तचाप ८० /५० ,युवकों का १२० /७० तथा वृद्धों का १४० /९० एम एम एच जी तक सामान्य माना जाता है।
शरीर में उच्च रक्तचाप के प्रमुख कारण निम्न हैं :-
आयु :-पुरुषों में ४५ वर्ष तथा महिलाओं में ५५ वर्ष के बाद उच्च रक्तचाप की सम्भावना बढ़ जाती है।
लिंग :-लिंग की दृष्टि से पुरुषों में महिलाओं की अपेक्षा उच्च रक्तचाप की सम्भावना अधिक होती है।
वंशानुगत :-माता -पिता को यदि उच्च रक्तचाप है तो बच्चों में इसकी सम्भावना बढ़ जाती है।
अन्य कारण :- मोटापा,तनावग्रस्त जीवन ,गरिष्ठ भोजन ,नमक तथा वसा का अधिक प्रयोग ,धूम्रपान,मदिरासेवन,कार्याधिक्य आदि।
उच्च रक्तचाप के लक्षण :-
उच्च रक्तचाप को निम्न चार अवस्थाओं में विभक्त करके इसकी पहचान की जा सकती है।
१- सामान्य अवस्था :-जब व्यक्ति का रक्तचाप १२० /८० एम् एम् एच जी होता है तो इसे सामान्य रक्तचाप कहा जाता है।
२- पूर्व अवस्था :-यदि रक्तचाप का स्तर सिस्टोलिक १२० से ऊपर तथा १४० से कम और डायस्टोलिक ८० से अधिक तथा ९० एम् एम् एच जी से कम हो तो इसे उच्च रक्तचाप की पूर्व अवस्था कहते हैं।
प्रथम अवस्था :-इस अवस्था में ररक्तचाप सिस्टोलिक १४० से १६० तथा डायस्टोलिक ९० से ९९एम् एम् एच जी तक माना जाता है।
- द्वितीय अवस्था :-इस अवस्था के अंतर्गत उच्च रक्तचाप सिस्टोलिक १६० या इससे अधिक तथा डायस्टोलिक १०० एम् एम् एच जी या इससे अधिक पाया जाता है।
उच्च रक्तचाप का प्रभाव :-
उच्च रक्तचाप के कारण शरीर की रक्तधमनियां ,हृदय,गुर्दे तथा अन्य अवयवों पर अनेकानेक दुष्प्रभाव परिलक्षित होने लगते हैं जिनमें प्रमुख प्रभाव निम्न हैं :-
धमनियों पर पड़ने वाला प्रभाव :-उच्च रक्तचाप का धमनियों के अंदर की दीवारों पर अधिक दबाव पड़ता है जिससे उनसे छोटे छोटे आंसू अथवा माइक्रोस्पिक टियर्स निकलने लगते हैं जो वहां के ऊतकों पर जख्म के निशान बना देते हैं जिससे शरीर की धमनियां क्षतिग्रस्त हो जाती हैओं। धमनियों के क्षतिग्रस्त होने से वहां पर वसा ,कोलेस्ट्रॉल तथा अन्य पदार्थ चिपकने लगते हैं जो क्रमशः धमनियों को सख्त,सङ्कर और मोटा बनाने की क्रिया को तेज कर देते हैं। क्षतिग्रस्त धमनियां शरीर के अन्य अवयवों को पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन तथा पोषक तत्व पहुँचाने में असमर्थ हो जाती हैं जिससे शरीर के अवयव धीरे धीरे कमजोर पड़ने लगते हैं। क्षतिग्रस्त धमनियों की दीवारों पर वसा के अधिक जमने से रक्त के थक्के बनने की क्रिया शुरू हो जाती है। यही थक्के रक्त संचरण प्रणाली के माध्यम से किसी भी बारीक़ व सँकरे धमनी में फंसकर शरीर के किसी भी हिस्से में रक्त की सम्पूर्ति को रोक देते हैं जिससे शरीर के उस अंग से सम्बन्धित विकार शरीर में आने लगते हैं और यही थक्का शरीर के किसी एक धमनी में फंसने से अधरंग तह हृदय की किसी कोरोनरी धमनी में फंसने से हृदय रोग को जन्म दे देती है।
उच्च रक्तचाप के प्रमुख लक्षणों में चक्कर आना,सोकर उठने पर थकावट महशूस होना ,शरीर में ऐँठापन महशूस होना ,सिर चकराना,चिड़चिड़ाहट होना ,कार्य में मन न लगना , पाचन शक्तियों का क्षीण हो जाना ,सीढियाँ चढ़ते समय अथवा श्रम करते समय साँस का फूलना ,श्रम करने की क्षमता में गिरावट ,घबराहट ,अनिद्रा,साइन में खिंचाव महशूस होना आदि हैं।
उपचार :-
वैसे तो उच्च रक्तचाप को व्यक्ति अपनी दिनचर्या में आवश्यक परिवर्तन करके भी इसे तक कर सकता है। उच्च रक्तचाप के कारक तत्वों यथा अपनी आदत में सुधार लाकर धीरे धीरे भी इसे नियंत्रित किया जा सकता है। ऐसी आदतों को दूर करने में निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक है १- भोजन में तेज मिर्च ,मसाले नमक तथा वसा की मात्रा को कम कर दें तथा मौसमी फल ,सब्जियां,सलाद व अंकुरित अनाज का प्रयोग बढ़ा दें। शुद्ध पानी पियें और पानी की मात्रा को भी क्रमशः बढ़ते रहें।
२-अपने शारीरिक वजन पर अवस्थानुसार नियंत्रण रखें।
३- धूम्रपान व मदिरा सेवन कदापि न करें।
४-तनावमुक्त रहने का प्रयास करें।
५- ताड़ासन,त्रिकोणासन,अर्धमत्स्येन्द्रासन उष्ट्रासन,भुजंगासन,शलभासन,धनुरासन,शशांकासन ,मकरासन ,शवासन सूर्यनमस्कार का निरन्तर अभ्यास करते रहें।
६- प्राणायाम में गहरे लम्बे श्वास भरना ,अनुलोम विलोम ,चन्द्रभेदी ,उज्जायी तथा भ्रामरी प्राणायाम का नियमित अभ्यास करें।
७- प्रतिदिन प्रातःकाल एवं सायं काल १० -१० मिनट का शवासन तथा ४५ मिनट की योगनिद्रा इसके नियंत्रण में विशेष सहायक होती है।
ध्यान द्वारा उच्च रक्तचाप का उपचार :-
शरीरस्थ रक्त भ्रमण प्रणाली के माध्यम से हृदय शरीर अंगों तक रक्त की सम्पूर्ति करने के लिए प्रत्येक धड़कन के साथ धमनियों में रक्त को आगे की ओर धकेलता है। रक्त नलिकाओं की आंतरिक दीवारों में अपनी लोच के कारण संकुचन व विस्तार की क्रिया निरन्तर होती रहती आई जो रक्त को धमनियों में आगे को ओर बढ़ाने में सहायक होती हैं। आयु बढ़ने के साथ साथ विपरीत दिनचर्या के कारण इन रक्त नलिकाओं में कड़ापन आ जाता है तथा इनकी दीवारें मोती हो जाने पर इनकी संकुचन व विस्तार की सकती का क्रमशः ह्रास होने लगता है जिससे धमनियों की दीवारो पर बहुत अधिक दबाव बन जाता है। यही उच्च रक्तचाप का मुख्य कारण है। उच्च रक्तचाप सामान्यतः अशांत,बेचैनी,तनावग्रस्त रहने के कारण होता है। अतः इस दुष्परिणाम को रोकने के लिए मन को शांत,आनंदपूर्ण,तनावरहित व प्रसन्न बनाने की आवश्यकता है। ध्यान इस क्रिया में विशेष सहायक माना जाता है क्योंकि यह अशांत ,बेचैन व तनाव की अवस्था को शांत व प्रसन्नतापूर्ण अवस्था में बदलने की प्रभावकारी तकनीक है। ध्यान की क्रिया से मांसपेशियों में तनाव ,मानसिक तनाव तथा भावनात्मक तनाव से सहज मुक्ति मिल जाती है। यदि उच्च रक्तचाप का रोगी प्रतिदिन ३०-४५ मिनट तक निरन्तर ध्यान करने की क्रिया सम्पादित करता है तो वह धीरे धीरे इस रोग से मुक्त हो सकता है।
ऋषिओं एवं मुनियों द्वारा अनुभूत यह प्रणाली आनंद की अनुभूति जागृत करती है क्योंकि आंतरिक आनंद के समक्ष बाह्य आनन्द जिसे हम सुख कहते ऐन ,तुच्छ है। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान शांतिकुंज हरिद्वार में ध्यान पर कई वैज्ञानिक परीक्षण किये गए हैं और इन परीक्षणों से यह निष्कर्ष निकल कि ध्यान की अवस्था में हमारे शरीर और मन में कई क्रन्तिकारी परिवर्तन होते हैं जैसे कि शरीर और मन का तनाव रहित हो जाना ,हृदय के धड़कनों के बीच अंतराल का बढ़ जाना ,पाचन क्रिया में सुधर ,हृदयगति का कम हो जाना ,शरीर में आक्सीजन कम होना ,मष्तिष्क में अल्फ़ा तरंगों का बनना व रक्त नलिकाओं की आंतरिक दीवारों का लचीला हो जाना आदि। ध्यान के अंतर्गत जब हम ॐ की ध्वनि के उच्चारण का निरन्तर अभ्यास करते हैं तो उससे हमारे मष्तिष्क में जो अल्फ़ा तरंगें बनती हैं वह हमें शांति व आनंद की अनुभूति करवाती हैं जिससे हृदय की मांसपेशियां शक्तिशाली होने लगती हैं और हृदय की कोरोनरी धमनी की रुकावट समाप्त हो जाती है। ध्यान के द्वारा हम शरीर की रक्त नलिकाओं को लचीला बनाकर उच्च रक्तचाप की सम्भावना को समाप्त कर सकते हैं। अतः ध्यान को अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करके प्रतिदिन प्रातः एवं सायं ३० मिनट का समय इसके लिए देना पर्याप्त होगा।
उपचार :-
वैसे तो उच्च रक्तचाप को व्यक्ति अपनी दिनचर्या में आवश्यक परिवर्तन करके भी इसे तक कर सकता है। उच्च रक्तचाप के कारक तत्वों यथा अपनी आदत में सुधार लाकर धीरे धीरे भी इसे नियंत्रित किया जा सकता है। ऐसी आदतों को दूर करने में निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक है १- भोजन में तेज मिर्च ,मसाले नमक तथा वसा की मात्रा को कम कर दें तथा मौसमी फल ,सब्जियां,सलाद व अंकुरित अनाज का प्रयोग बढ़ा दें। शुद्ध पानी पियें और पानी की मात्रा को भी क्रमशः बढ़ते रहें।
२-अपने शारीरिक वजन पर अवस्थानुसार नियंत्रण रखें।
३- धूम्रपान व मदिरा सेवन कदापि न करें।
४-तनावमुक्त रहने का प्रयास करें।
५- ताड़ासन,त्रिकोणासन,अर्धमत्स्येन्द्रासन उष्ट्रासन,भुजंगासन,शलभासन,धनुरासन,शशांकासन ,मकरासन ,शवासन सूर्यनमस्कार का निरन्तर अभ्यास करते रहें।
६- प्राणायाम में गहरे लम्बे श्वास भरना ,अनुलोम विलोम ,चन्द्रभेदी ,उज्जायी तथा भ्रामरी प्राणायाम का नियमित अभ्यास करें।
७- प्रतिदिन प्रातःकाल एवं सायं काल १० -१० मिनट का शवासन तथा ४५ मिनट की योगनिद्रा इसके नियंत्रण में विशेष सहायक होती है।
ध्यान द्वारा उच्च रक्तचाप का उपचार :-
शरीरस्थ रक्त भ्रमण प्रणाली के माध्यम से हृदय शरीर अंगों तक रक्त की सम्पूर्ति करने के लिए प्रत्येक धड़कन के साथ धमनियों में रक्त को आगे की ओर धकेलता है। रक्त नलिकाओं की आंतरिक दीवारों में अपनी लोच के कारण संकुचन व विस्तार की क्रिया निरन्तर होती रहती आई जो रक्त को धमनियों में आगे को ओर बढ़ाने में सहायक होती हैं। आयु बढ़ने के साथ साथ विपरीत दिनचर्या के कारण इन रक्त नलिकाओं में कड़ापन आ जाता है तथा इनकी दीवारें मोती हो जाने पर इनकी संकुचन व विस्तार की सकती का क्रमशः ह्रास होने लगता है जिससे धमनियों की दीवारो पर बहुत अधिक दबाव बन जाता है। यही उच्च रक्तचाप का मुख्य कारण है। उच्च रक्तचाप सामान्यतः अशांत,बेचैनी,तनावग्रस्त रहने के कारण होता है। अतः इस दुष्परिणाम को रोकने के लिए मन को शांत,आनंदपूर्ण,तनावरहित व प्रसन्न बनाने की आवश्यकता है। ध्यान इस क्रिया में विशेष सहायक माना जाता है क्योंकि यह अशांत ,बेचैन व तनाव की अवस्था को शांत व प्रसन्नतापूर्ण अवस्था में बदलने की प्रभावकारी तकनीक है। ध्यान की क्रिया से मांसपेशियों में तनाव ,मानसिक तनाव तथा भावनात्मक तनाव से सहज मुक्ति मिल जाती है। यदि उच्च रक्तचाप का रोगी प्रतिदिन ३०-४५ मिनट तक निरन्तर ध्यान करने की क्रिया सम्पादित करता है तो वह धीरे धीरे इस रोग से मुक्त हो सकता है।
ऋषिओं एवं मुनियों द्वारा अनुभूत यह प्रणाली आनंद की अनुभूति जागृत करती है क्योंकि आंतरिक आनंद के समक्ष बाह्य आनन्द जिसे हम सुख कहते ऐन ,तुच्छ है। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान शांतिकुंज हरिद्वार में ध्यान पर कई वैज्ञानिक परीक्षण किये गए हैं और इन परीक्षणों से यह निष्कर्ष निकल कि ध्यान की अवस्था में हमारे शरीर और मन में कई क्रन्तिकारी परिवर्तन होते हैं जैसे कि शरीर और मन का तनाव रहित हो जाना ,हृदय के धड़कनों के बीच अंतराल का बढ़ जाना ,पाचन क्रिया में सुधर ,हृदयगति का कम हो जाना ,शरीर में आक्सीजन कम होना ,मष्तिष्क में अल्फ़ा तरंगों का बनना व रक्त नलिकाओं की आंतरिक दीवारों का लचीला हो जाना आदि। ध्यान के अंतर्गत जब हम ॐ की ध्वनि के उच्चारण का निरन्तर अभ्यास करते हैं तो उससे हमारे मष्तिष्क में जो अल्फ़ा तरंगें बनती हैं वह हमें शांति व आनंद की अनुभूति करवाती हैं जिससे हृदय की मांसपेशियां शक्तिशाली होने लगती हैं और हृदय की कोरोनरी धमनी की रुकावट समाप्त हो जाती है। ध्यान के द्वारा हम शरीर की रक्त नलिकाओं को लचीला बनाकर उच्च रक्तचाप की सम्भावना को समाप्त कर सकते हैं। अतः ध्यान को अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करके प्रतिदिन प्रातः एवं सायं ३० मिनट का समय इसके लिए देना पर्याप्त होगा।
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