''दिव्य पुरूष
एवं युग प्रवर्तक''
रसिकाचार्य श्री
करूणासिन्धु जी महाराज की जीवन-यात्रा
उत्तर प्रदेश के
जनपद प्रतापगढ़ तहसील कुण्डा के अन्तर्गत हीरागंज बाजार के
सनिनकट गाँव गोपालापुर के ब्राह्राण (धतुरा तिवारी) कुल में विधि-विधानपूर्वक मानस
यज्ञ (अखण्ड रामायण पाठ) के सम्पन्न होने के फलस्वरूप विक्रम संवत-१७३०, सन-१६७४ र्इ० के बैशाख मास के
शुक्ल पक्ष चतुर्दशी को श्री जानकी तिवारी के घर पुत्र रत्न स्वरूप एक तेजस्वी एवं
नखरूप चन्द्र के तेज से उत्पन्न बालक ने जन्म लिया था।
दिन चारि चतुर्दशी शुक्ल
सुमाधव मास स्वपन्न सवे अनया।
सब लोग सुखदद शशी कर हदद
उजग्गर वंश सुपुत्र भयो।।
सत्रह सौ तीस सुविक्रम अब्द
सुभाष भयो तिहँ लोक जसी।
शशि पूर्ण कला नखते जपला पद
अंगुठवाम सुआनि वसी।।
(श्री करूणामणि माला से
उदघृत सवैया)
परिवार के कुल
पुरोहित पंडित देवानन्द जी ने नामकरण संस्कार कर प० रामप्रपन्न नाम देते हुए
शुभाशीष स्वरूप बालक की जन्मपत्री की संरचना करके उनके भविष्य की एक झलक विलक्षण
प्रतिभावान बालक की प्रस्तुत कर दी थी। बडे़ धूम-धाम से बालक की माता ने अपने आंगन
में परिवार की नारियों को बुलाकर बालक की छठि-कर्म सम्पन्न किया तथा यथोचित
दान-दक्षिणा देते हुए बालक के जन्म की खुशियाँ मनायी। एक दिन माता श्रीमती पदमा ने
बालक के पालने में खेलते समय उसके आभा मंडल के प्रकाश को गौर से देखा तो वह अचेत
होकर वहीं गिर पड़ी। परिवार के बुजुर्गों ने बालक की माता को सांत्वना देते हुए
उसे संत-कृपा का फल बताया तो उसी समय बालक के हाथ पर श्री राम चरित मानस (गुटका)
ग्रन्थ व तुलसी दल को रखते हुए परिजनों ने बालक की न्यौछावर की एवं पुन: गरीबों को
दान-दक्षिणा बाँटी गयी। बालक के माता-पिता की उक्त प्रसन्नता को करूणामणिमाला के
इस दोहे से भलीभाँति समझा जा सकता है:-
कहुँ पालना कहुँ गोद में दूध
पियावति मात।
चरण हाथ मुख चूमती तेल लगावति गात
।।1।।
मजिज मंद
हँसि झीगुंली कंगही
केश सुधारि।
भाल दिठोना अंजि दृग चूमति हृदय
उघारि ।।2।।
(श्री करूणामणि
माला से उदघृत सवैया)
बाल्यकाल में घुटने के बल
चलते हुए बालक पं० रामप्रपन्न तिवारी को लोटा-थाली बजाकर मग्न होकर नाचते हुए
देखकर माता अत्यन्त भाव-विभोर हो जाती। चैतमास में अयोध्या के रामघाट पर बालक का
मुंडन कराकर ब्राह्मण भोजन का आयोजन कराते हुए मुंडन संस्कार सम्पन्न कराया गया और
स्थानीय विभिन्न मनिदरों की परिक्रमा करते हुए अन्त में हनुमान मंदिर की डयोढी पर
बालक को लिटाकर उनके आशीर्वाद एवं कृपा की याचना परिजनों द्वारा की गयी। मंदिर से
घर वापस आकर नाच-गाने के साथ भण्डारा करके पुन: परिवार में खुशियाँ मनायी गयी। गाव
के लोग बालक की तेजस्वी छवि एवं विलक्षण प्रतिभा को देखकर आपस में यही बात करते थे
कि ब्राह्मण कुल में इस बालक ने किसी पुण्यात्मा के रूप में जन्म लिया है। कुल
पुरोहित पंडित देवानंद ने इस विलक्षण प्रतिभा के बालक को अपने संरक्षण में
वेदशास्त्र की विधिवत शिक्षा-दीक्षा आरम्भ की। शिक्षा के पश्चात पं० रामप्रपन्न
तिवारी का श्री अजमोद कुमार की पुत्री विलासिनी से विवाह भी कर दिया गया। रियासत
ढि़गवस बेंती तथा कालाकांकर द्वारा बार-बार उन्हें
पुरोहित के रूप में स्वीकार करने का आमंत्रण भेजा गया किन्तु पं० रामप्रपन्न
तिवारी अपनी आर्थिक सिथति अच्छी न होने के बावजूद भी उस आमंत्रण को अस्वीकार करते
रहे। राजा कालाकांकर श्री वैरीशाल ने एक दिन स्वप्न देखा कि कोर्इ युवा ब्राह्मण
हाथ में लाठी लेकर उनके सामने खड़ा है और पूरा राजमहल आग से जल रहा है। इस दृश्य
से राजा की नींद खुली और उन्होंने तत्काल अपने परिजनों को बुलाकर स्वप्न की बात
बतायी। राज दरबार के कुछ लोगों ने कुल देवता के रूष्ट होने की बात कही तो कुछ ने
इसे केतु-ग्रह का प्रकोप बताया। इस घटना के बाद राजा कालाकांकर वैरीशाल स्वयं
गोपालापुर आकर पं० राम प्रपन्न तिवारी से अपनी रियासत के लेखा प्रबन्धन कार्य के
रिक्त पद को स्वीकार करने का इस शर्त के साथ यह हठ कर लिया, कि जब तक आप
कालाकांकर नही चलेंगे तब तक मैं भी आपके पास ही रहूँगा। पं० राम प्रपन्न तिवारी
अन्तत: इस अनुरोध को स्वीकार करते हुए कालाकांकर आकर रियासत के लेखा एवं प्रबन्धन
कार्य संभाल लिए। पंडित राम प्रपन्न तिवारी के कालाकांकर आने पर राजा वैरीशाल
द्वारा देखे गये स्वप्न अर्थात केतु के प्रकोप से जो अनर्थकारी कि्रयायें हो रही
थी वे धीर-धीरे शान्त होने लगी। प्रतिदिन राजा वैरीशाल परिजनों के साथ पंडित जी
द्वारा कराये गये पूजा पाठ में समिमलित होने लगे व रामकथा सुनने लगे। ऐसे
पुण्यात्मा ब्राह्मण के सानिध्य में राजा वैरीशाल धीरे-धीरे परमार्थ अर्थात
अध्यात्म की ओर उन्मुख होने लगे।
पं० रामप्रपन्न तिवारी प्राय: अपने आराध्य देव
श्री हनुमान जी की आराधना में लीन रहते हुए हदय में भगवान राम व सीता की मनमोहक
छवि को संजाये हुए श्री हनुमान की विशेष कृपा प्राप्त कर लिए थे। इसी मध्य एक दिन
ऐसा भी आया, जब वे किसी विशेष पूजा में व्यस्त होने के कारण रियासत का कार्य उस दिन नही
देख पाये थे। पूजा समापित के पश्चात अपने कर्तव्य का आभास होने पर वे सीधे रियासत
के कार्यालय पहुँचकर सहयोगी कर्मचारियों से रियासत की लेखाबही प्रस्तुत करने का
आग्रह किया, ताकि रियासत के उस दिन का लेेखा-जोखा उसमें अंकित कर सके। पंडित जी के आग्रह
पर उनके सहयोगी आश्चर्य प्रकट करते हुए बोल पडे़ कि पंडित जी आप तो प्रातकाल ९:००
बजे ही कार्यालय आ गये थे तथा रियासत के लेन-देन सम्बन्धी निर्देश देते हुए आपने
लेखाबही में उनकी प्रविषिट भी कर दी है। सहयोगियों के इस उत्तर पर पंडित जी स्वयं
हतप्रभ हो गये एवं उसकी पुषिट के लिए उन्होंने लेखाबही प्रस्तुत करने के निर्देश दिये।
लेखाबही प्रस्तुत होने पर उन्होंने जो भी देखा वह किसी चमत्कार से कम न था। उस दिन
का सम्पूर्ण लेखा-जोखा रजिस्टर में विधिवत अंकित था तथा प्रत्येक लेन-देन की
प्रविषिट पर उनके स्वयं के हस्ताक्षर भी मौजूद थे। ऐसे चमत्कार को देखकर पंडित जी
अपने सहयोगियों को अपने-अपने कार्य में लग जाने का निर्देश देते हुए कुछ समय के
लिए एकान्त में ध्यान करने लगे। ध्यानावस्था में ही उन्हें यह बोध हुआ कि पूजा
कार्य में व्यस्त होने की अवधि में उनके आराध्य देव पवन पुत्र श्री हनुमान स्वयं
उनका भेष धारण कर कार्यालय में उपसिथत हुए थे और प्रतिदिन की भाँति कार्यालय का
सम्पूर्ण कार्य उनके द्वारा ही संचालित किया गया। इस तथ्य का आभास होने के पश्चात
पं० राम प्रपन्न तिवारी की अपने पूज्य एवं आराध्य के प्रति आस्था इतनी दृढ़ हो गयी
कि वह कार्यालय से निकलकर सीधे अयोध्या के लिए प्रस्थान कर गये।
कालाकांकर से अयोध्या की लगभग २५० कि0मी0 की दूरी पैदल
तय करते हुए दूसरे दिन सायंकाल वे सुल्तानपुर के निकट सिथत घने जंगल में प्रवेश कर
चुके थे। अंधेरे के कारण उन्हें आगे का मार्ग स्पष्ट दिखायी नही पड़ रहा था। अत:
वे किसी वट वृक्ष के नीचे बैठ कर अपनी थकान मिटाने लगे थे। थोड़ी देर पश्चात
उन्होंने श्वेत वस्त्रधारी लम्बे बाल व दाढ़ी से युक्त एक संत वेशधारी ब्राह्मण को
देखा, जो उनके पास आकर रूक गये एवं कुशल क्षेम पूँछकर उनका आगे का मार्ग प्रशस्त
करते हुए कहा कि बेटा तुम इस पगड़ण्डी को पकड़कर सीधे रास्ते पर चलते
रहना, तीन दिन के पश्चात तुम्हें अयोध्या नगरी मिल जायेगी।
पंडित जी ने एक लम्बी एवं गहरी श्वास ली तथा
ब्राह्मण साधु की कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उनके द्वारा बतायी गयी पगडंडी पर आगे
की ओर चलने लगे। रात-दिन जंगल की यात्रा करने के पश्चात प्रात: ६:०० बजे अयोध्या
पहुँचने वाले ही थे कि पुन: उपयर्क्त संत वेशधारी ब्राह्मण उनके सामने प्रकट हो
गये। हतप्रभ होकर पंडित जी के मुख से अकस्मात यह शब्द निकल पड़ा कि महाराज आप तो
सायं काल जंगल के प्रारम्भ में ही मेरा मार्गदर्शन कर दिया था और अब यहाँ कैसे
उपसिथत हो गये। साधु ने पंडित जी को आश्वस्त करते हुए कहा कि बेटा अब यहाँ से आगे
का मार्ग भी तो तुम्हें बताना था इसीलिए दोबारा आना पड़ा।
पंडित जी के सिर पर हाथ रखते हुए ब्राह्मण ने
कहा कि बेटा तुम चौथे दिन अयोध्या सिथत सूर्यकुंड पहुँच जाओगे और उसी दिन वहाँ
बड़ा रविवार का मेला लगा हुआ पाओगे। सूर्यकुंड पहुँचने पर सरजू नदी में स्नान करके
कुछ देर वहीं पर विश्राम कर लेना। विश्राम के पश्चात अगले दिन सरजू नदी के श्री
रामघाट पर स्नान करके श्री हनुमानगढ़ी मंदिर पर आ जाना और वहाँ संतों से मोदक बाबा
का नाम पूँछकर मेरे पास आ जाना, मैं वहीं पर तुम्हें मिलूँगा। पंडित जी संत
वेशधारी (श्री हनुमान) के उपरोक्त आदेश का पालन करते हुए निर्धारित समय पर श्री
हनुमानगढ़ी मंदिर पहुँच गये किन्तु पहुँचने से ठीक पांच मिनट पूर्व दोपहर के पूजन
के बाद मंदिर का पट बन्द हो चुका था। पंडित जी निराश होकर वहाँ उपसिथत संतो से
मोदक बाबा की जानकारी प्राप्त करनी चाही किन्तु कोर्इ भी मोदक बाबा के पास पहुँचने
का मार्ग नही बता पाया। निराश होकर के पंडित जी वहीं मंदिर की सीढ़ी पर बैठकर अपने
आराध्य देव का स्मरण करने लगे। इसी समय श्री हनुमान जी ने मंदिर के महाराज बिन्दुक
गाधाचार्य स्वामी श्रीराम प्रसादाचार्य (बड़ी जगह) को स्वप्न में पंडित जी के आगमन
की सूचना देते हुए उन्हें निर्देशित किया कि वे पंडित जी को तुरन्त अपने पास बुला
लें तथा अपने परिकर में समिमलित कर लें। बिन्दुक महाराज अस्वस्थ थे अत: उन्होंने
अपने उत्तराधिकारी श्री रघुनाथ प्रसादाचार्य दीनबन्धु महाराज को पंडित
जी को सादर अपने पास ले आने की आज्ञा दी। दीनबन्धु जी तुरन्त सीढ़ी पर बैठे हुए
पंडित जी को बिन्दुक महाराज के पास ले आये। पंडित जी के आगमन पर मंदिर में एक
महोत्सव का आयोजन किया गया और उसी महोत्सव में उनका नामकरण श्री रामचरण दास महाराज कर दिया गया। पं०
राम प्रपन्न तिवारी ने गुरूदेव को दंडवत करके श्री हनुमान जी के धाम की सात फेरी
परिक्रमा की। गुरूदेव राम प्रसाद ने सभी शिष्यों को बुलाकर मंडप की संरचना करायी
और विधि-विधानपूर्वक पंचगव्य के साथ चंदि्रका मुदि्रका रामनाम धनुषबाण आदि
चारों संस्कार सम्पन्न कराये।
कहि समुझाय प्रमाण महिमा कंठी तिलक
की।
युगल गुरूहिं सनमान पादोदक मुख
शिरँधरयो।।
कुसुमन माल प्रसाद उठवत आपुहिं गिर
परेऊ।
सदगुरू राम
प्रसाद
लै उठाय पहिरायेऊ।।
(श्री करूणामणि माला से
उदघृत)
कालाकांकर से पं० राम प्रपन्न तिवारी के अयोध्या
प्रस्थान के पश्चात राजा वैरीशाल अत्यधिक व्यग्र एवं दु:खी रहने लगे थे। ज्योंही
उन्हें यह समाचार प्राप्त हुआ कि पंडित जी अयोध्या सिथत बड़ी जगह पहुँच चुके हैं त्योही
उन्होंने सपरिवार अयोध्या के लिए प्रस्थान कर दिया। अयोध्या पहुँच कर गुरू राम प्रसाद जी से पंडित राम प्रपन्न
तिवारी जी को वापस कालाकांकर लाने हेतु राजा ने हाथ जोड़कर अनुरोध किया तथा इसके
एवज में उन्होंने बारह सौ रूपये मासिक व साढे़ तीन सौ बीघा जमीन भी देने का
प्रस्ताव रखा। इसी मध्य पंडित जी के माता-पिता व ग्राम गोपालापुर के अन्य कुटुम्ब
जन भी अयोध्या पहुँच चुके थे। सभी ने पंडित जी को वापस लाने का अथक प्रयास किया।
गुरू राम प्रसाद जी अन्तत: सहमत भी हो गये थे किन्तु इसी समय दोपहर के भोजन का
समय हो चुका था। अयोध्या के सभी साधु-संत
उपसिथत होकर पंकितबद्ध भोजन कर रहे थे। इसी समय पंडित राम प्रपन्न तिवारी हाथ में
एक पत्तल लेकर साधु-संतों की पतरी में बचे हुए जूठन को एकत्रित करके उसका प्रसाद
ग्रहण करने लगे। यह दृश्य देखकर पंडित जी के परिवार के लोग विचलित हो गये।
उन्होंने पंडित राम प्रपन्न को घर वापस लाने का अपना इरादा बदलकर चुपके से बिना
किसी को बताये हुए अयोध्या से गोपालापुर चले आये। अन्त में राजा वैरीशाल भी निराश
होकर कालाकांकर लौट आये।
स्वामी श्रीराम प्रसादाचार्य के संरक्षण में
श्रीराम चरणदास ने सदग्रन्थों में छिपे हुए रस, भाव, अनुभाव एवं संचारी भाव को उदघाटित करने हेतु श्रीचारूशीला
बाग पहुँच गये। कुछ समय तक वहीं रहते हुए रास विलास की गहराइयों से परिपूर्ण अनेक
ग्रन्थों की रचना की और वहीं गुरू श्री हनुमान जी की प्रेरणा से श्रीचारूशीला जी
की महती कृपा प्राप्त की। देशाटन के उददेश्य से कुछ समय वाराणसी में तीर्थवास किया
तथा पुन: अयोध्या वापस आकर श्रृंगार रस का अवगाहन करते हुए कवित्त अग्रसागर, अग्ररस, मंजूष अग्रसुचंदिका, अग्ररास बिलास, कौमुदि, अग्रयूथ
विनोदिका, अग्रसुषमा, अग्रमंजरि, अग्रसेवा, वो रात, अग्रचालीसा, बहार, पियूष, अग्र बड़ा खड़क, अग्ररस की
कुंजिका, परिशालिनी, वो बिमासिका, अग्रगीत, तरंग, दर्शन, पदक, अग्रकलापिका, मारतंड, प्रदीप, तन्त्री, कुसुम, दर्पण, अंजना, अग्ररससारी, महोत्सव, परिणयन्न
विवेकना आदि की रचना की। इसके अतिरिक्त प्रतिदिन एक नये पद की रचना करते हुए
साधु-संतो के मध्य उसे गा गाकर उन्हें भाव-विभोर करने लगे। बारह वर्ष तक सत्संग
करने के पश्चात भक्तमाल कथा का पुराणों से अनुवाद किया। गुरू राम प्रसाद एवं अन्य
कतिपय सन्तों के साथ चित्रकूट में कुछ समय तक वास करने के पश्चात पुन: जानकी घाट
वापस आ गये तथा श्री हनुमान जी की प्रेरणा से तुलसीकृत रामायण के प्रत्येक काण्ड की
संवत-१८६५ में आनंद लहरी नामक टीका की रचना की, जिससे संत समाज
अत्यन्त कृतकृत्य हो उठा।
पांच षष्ठ
वसु एक में, विजयादशमी भोर ।
आनंद लहरी
नामकी,
टीका चली
सुठोर ।।1।।
सकल कांड एक
संग में, टीका
दर्इ चलाय।
लखि-लखि, सुनि-सुनि मनहिं गुन, संत हृदय
हर्षाय।।2।।
(श्री करूणामणि
माला से उदघृत सवैया)
शिष्य जीवाराम
के अनुरोध पर उन्हें मृदंग वादन करके राम कथा वाचन में प्रवीण किया तथा काशी, विन्ध्याचल एवं
चित्रकूट से पधारे हुए अनेकानेक शिष्यों को टीका की रसात्मक व्याख्या सुनाकर
उन्हें भी पारंगत किया। अन्त में सरजू नदी के किनारे मचान बनाकर तीन दिन तक मानस
पाठ, हवन, ब्रह्मभोज आदि का आयोजन करके अत्यधिक प्रसन्नता
एवं आलौकिक सुख की प्रापित की। अन्तत: माघ शुक्ल नवमी तिथि संवत-१८८०, सन-१८३४ र्इ0 में १५० वर्ष की
आयु पूर्ण करते हुए करूणामयी दृषिट से अपने चारों ओर बैठे हुए शिष्यों पर एक
विहंगम दृषिट डाली और अपने प्रस्थान हेतु आकाश से उतरते हुए एक विमान की ओर इशारा
किया और उसी समय अपने दोनों नेत्र सदा के लिए बन्द करके महानिर्वाण की प्रापित की।
अत्यधिक संवेदना के साथ भाव-विभोर होते हुए शिष्यों ने उन्हें रसिक विभूति श्री
करूणासिन्धु जी महाराज की महाउपाधि से विभूषित करते हुए अपने गुरू अनंत
श्री स्वामी श्रीराम चरणदास से अनितम विदा ली।
माघ शुक्ल नवमी तिथी, वसु वसु वसु शीश
शाल।
सुमन सेज विश्राम लियो, मघ्य दिवस
रविमाल।।1।।
संत रसिक करिहहिं दया, लिखि निज मति
अनुसार।
रास रसिक पढि़हहिं, सुनहिं करूणमाल
सुधार।।2।।
(श्री करूणामणि माला से
उदघृत)
No comments:
Post a Comment