शीतल शब्द का अर्थ है ठंडा । यह प्राणायाम शरीर के समस्त अवयवों को शीतलता प्रदान करता है इसीलिए इसका नाम शीतली प्राणायाम रखा गया है । प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व अथवा सायं सूर्योदय के पश्चात इस आसन को खुले वातावरण में करना चाहिए /
विधि :------
१;---पद्मासन अथवा सुखासन जिसमें भी सुबिधा हो , स्थिरतापूर्वक बैठ जाएँ ।
२:----सिर के समानांतर अपने पीठ को सीधा रखें और दोनों हाथों की हथेलियों को उल्टा करके ज्ञान मुद्रा में अपने घुटने पर रखें ।
३-अब अपने मुहं को इस प्रकार से खोलें कि दोनों होंठों के मध्य गोल आकृति बन जाये ।
४:--अपनी जीभ को ऊपर की ओर मोड़ते हुए इस प्रकार उठायें कि जीभ तालू के ऊपरी भाग को स्पर्श करे तथा जीभ के किनारे और अग्र भाग दांतों को छूते रहें ।
५:--अब मुड़ी हुई जीभ को होठों के बाहर निकालें और फुफुफ्सों को पूरी तरह भरने के लिए सिसकार की ध्वनि के साथ मुड़ी हुई जीभ से हवा को अंदर की ओर खींचें ।ऐसा करते समय ऐसा अनुभव होना चाहिए कि हवा किसी नली के सहारे अंदर की ओर खींची जा रही है । पूर्ण श्वसन के पश्चात जीभ को अंदर कर लें ।
६:--पूर्ण श्वसन के बाद सिर को गर्दन के पिछले भाग से धड की ओर झुकाएं और अपने चिबुक को हंसुली और सीने की हड्डी के थोडा ऊपर मध्य भाग में इस प्रकार स्थिर करें कि जालन्धर बंध की मुद्रा बन जाये ।
७:--अब मूल बंध का अभ्यास करते हुए ५ सेकेण्ड तक श्वास को रोकें रखें ।
८:--उज्जायी प्राणायाम की तरह नासिका से वायु को छोड़ने की ध्वनि के साथ धीरे धीरे श्वास को छोड़ें ।
९:--इस प्रकार शीतली प्राणायाम का एक चक्र पूरा हो जाता है ।
१० :--अब सिर को उठा लें और ५ से १० मिनट तक इस माला की पुनरावृत्ति करें ।
परिणाम :--
इस प्राणायाम से सम्पूर्ण शरीर यंत्र को ठंडक प्राप्त होती है और कान एवं नेत्र को शक्ति मिलती है । यह मंद ज्वर और पित्त की अवस्था में विशेष लाभदायक है ।यह यकृत एवं प्लीहा को क्रियाशील बनाता है तथा प्यास बुझाकर पाचनशक्ति को बढ़ाता है ।
सावधानी :-
-उच्च रक्त चाप के व्यक्तियों को अंतर र्कुम्भ्क नहीं करना चाहिए और हृदय रोग से पीड़ित साधक को भी यह प्राणायाम नहीं करना चाहिए ।
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