Sunday 9 October 2011

योग एवं जीवन

महर्षि पतंजलि ने योग को चित्तवृत्ति निरोध की संज्ञा देते हुए इसे चेतना की चंचलता का दमन बताया है |योग को एक ऐसी क्रिया माना  है जिससे चंचल मन शांत होता है और शक्ति निर्माण की दिशा में सम्बल प्रदान करता है | कभी कभी मन को नियंत्रित करना सहज नहीं हो पाता जैसाकि भगवद्गीता के छठे अध्याय में अर्जुन- श्रीकृष्ण के सम्वाद से परिलक्षित होता है | अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूंछते हैं --कृष्ण: आपने कहा है कि ब्रह्म [विश्वात्मा ]जो सदा एक है ,से तादात्म्य ही योग है लेकिन जब मन इतना चंचल है और अस्थिर है तब वह शाश्वत कैसे हो सकता है ?इसको तो वश में करना वायु को वश में करना जैसा कठिन लगता है |भगवान कृष्ण उत्तर देते हैं --निःसंदेह मन चंचल है और उसे वश में करना बहुत कठिन है फिर भी उसे निरंतर अभ्यास और वैराग्य द्वारा वश में किया जा सकता है |जिसने अपने आप को संयमित नहीं किया उसके लिए योग को प्राप्त करना बहुत ही  कठिन है किन्तु आत्मसंयमी व्यक्ति इसे अंततः प्राप्त कर लेता है |
मन की  अवस्थाओं का वर्गीकरण पांच वर्गों  में किया गया है --प्रथम क्षिप्त अवस्था जहाँ मानसिक शक्तियां अव्यवस्थित एवं उपेक्षित होकर बिखरी रहती हैं | इसमें रजोगुण की प्रबलता से तन विषयाशक्त हो जाता है |
दूसरा विक्षिप्तावस्था जहाँ मन उत्तेजित एवं व्यग्र होता है |यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति को अपने प्रयत्नों के फल के उपभोग करने की  क्षमता तो है किन्तु वासनाएं व्यवस्थित व नियंत्रित नहीं हो पाती | तीसरी अवस्था  मूढावस्था जहाँ मन निर्बुद्ध ,मंद तथा मूर्ख होता है |इस अवस्था में तमोगुण की  प्रबलता से मन सदैव व्याकुल रहता है |मन की चौथी अवस्था एकाग्रावस्था है जहाँ सत्व गुण प्रबल होने से मन गुप्त रूप से सचेत होता है और मानसिक शक्तियाँ एक विषय वस्तु पर केद्रित हो जाती हैं |पांचवी मानसिक अवस्था को ही निरुद्धावस्था कहा जाता है जहाँ मन, बुद्धि तथा अहंकार तीनों पर नियंत्रण हो जाता है और ये सभी आतंरिक शक्तियाँ परमात्मा को उसके उपयोग तथा उसकी सेवा में समर्पित कर दी जाती हैं |यहाँ मै और मेरा का बोध नहीं रह जाता है |
मानसिक स्वास्थ्य :--जिस व्यक्ति का मन स्वस्थ है उसका मन एकाग्र,प्रसन्न ,विनम्र व शांत रहता है |  मानसिक अस्वस्थता का कारण केवल  मानसिक कल्पनाएँ करना ,जीवन की वास्तविकता को उपेक्षित करना ,इच्छाओं का दमन करना ,स्वार्थी जीवन जीना ,कुकर्मों के कारण चेतना में संकीर्णता ,अपमान, अन्याय ,धोखा मिलना ,नशीले पदार्थों का सेवन करना ,आत्माभिव्यक्ति का अवसर न मिलना ,घर में कलह बने रहना एवं योग्यता अनुसार कार्य न मिलना आदि हैं | अतः मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए निम्नांकित  बातों पर विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है ;----
१- अपने शरीर को योगाभ्यास  द्वारा  स्वस्थ बनाइए और इसके लिए कुंजल ,नेति ,अनिमा ,आसन, शंख- प्रक्षालन  ,प्राणायाम एवं त्राटक क्रियाओं का निरंतर अनुसरण  करें |
२- अचेतन मन के अंदर स्थित विकारों को दूर करने के लिए योगनिद्रा एवं ध्यान का  निरन्तर अभ्यास करें क्योंकि इससे चेतन एवं अवचेतन मन की शुद्धि हो जाती है |
३- शुभ चिन्तन व मनन करें ,सद्ग्रंथों का अध्ययन करके उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें |
४- निष्काम सेवा करें क्योंकि मानसिक शुद्धि व सबलता का यह श्रेष्ठ साधन है जिसके द्वारा अहम पूर्णतयः  नष्ट हो जाता है  | अतः  सप्ताह में कम से कम दो घंटे निःस्वार्थ सेवा अवश्य करें |
५- अपने मन में अभिरुचि पैदा करें क्योंकि रुग्न मन को स्वस्थ रखने एवं स्वस्थ मनोरंजन का यह सर्वोत्तम  साधन है |प्रकृति दर्शन ,खेल, कला,संगीत ,साहित्य -सृजन ,पत्र -लेखन ,आदि रचनात्मक कार्यों में से किसी एक विषय को रूचि के अनुरूप अपनाने में जीवन सार्थक हो जाता है |
६- इन्द्रियों के विषयों से अनासक्ति भाव रखने से जीवन सरल व सरस हो जाता है | इच्छाएं तो हमेशा रहेंगी किन्तु उनमें लगाव न हो यह एक महत्वपूर्ण बात है जिसे हमेशा ध्यान में रखना चाहिए |
७- अपने मन को शिकायत रहित बनाएं क्योंकि मन जब उदार और गम्भीर होता है तब न तो अपने प्रति और न ही  दूसरों के प्रति ही  कोई शिकायत रहती है |
८- जीवन भर प्रसन्नचित रहने का संकल्प कर लें तो जीवन में कभी भी असफलता का सामना नहीं करना पड़ेगा क्योंकि प्रसन्नता के आते ही मानसिक रुग्णता स्वतः समाप्त हो जाती है  | 
ध्यान- योग :---
मन की एकाग्रता एवं ध्यान के बिना मनुष्य किसी भी वस्तु पर नियंत्रण नहीं कर सकता है |विश्व नियंता को ध्यान किये बिना व्यक्ति अपने अंतर के दिव्यात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता | इसलिए साधक को एकाग्रता की प्राप्ति के लिए ॐ पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ता है जो परमात्मा का प्रतीक स्वर भी  है | जीवन में योग साधना का उतना ही महत्व है जितना किसी कार्य के अंत या परिणाम का | पतंजलि ने आत्मा की खोज के लिए योग के आठ अंगों व अवस्थावों को "अष्टांगयोग" के नाम से निम्नवत बताया है ---यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार,धारणा,ध्यान,समाधि | यम और नियम योगी के विकारों एवं भावनाओं   को नियंत्रित करते हैं तथा उन्हें साधकों की भाँति एक निश्चित स्थिति  में लाते हैं |आसन शरीर को स्वस्थ और सुदृढ़ तथा प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण रखता है | प्राणायाम और प्रत्याहार  साधक को श्वासों के संचालन द्वारा मन को नियंत्रित करना सिखाते हैं तथा धारणा, ध्यान और समाधि योगी को उसकी आत्मा के अंतरतम के गहन स्थान तक ले जाती हैं | वह ऐसा बोध जाग्रत करती हैं कि वह उसमें ही हैं जिसे अंतरात्मा के रूप में जाना जाता है |अंतिम तीन अवस्थाएं साधक और साध्य के बीच समस्वरता लाती हैं जिसे स्वानुभूति अथवा आत्मानुभूति भी कहा जाता है |
योग में आसन का महत्व सर्वविदित है | आसन से स्थिरता ,स्वास्थ्य तथा अंगों में हल्कापन आता है |स्थिर और सुखदायी आसन से शारीरिक और मानसिक स्थिति संतुलित हो जाती है |आसन शरीर की बनावट को सुरक्षित रखते हैं जो पुष्ट और मांशपेशियों के गठित हुए बिना भी लचीला रखता है |यह शरीर को सभी प्रकार की बीमारियों से सुरक्षित रखता है |आसनों के करने से योगी सर्वप्रथम स्वास्थ्य लाभ करता है |स्वास्थ्य एक ऐसी पूँजी है जो कठिन श्रम से ही प्राप्त होती है |यह शरीर मन और आत्मा के पूर्ण संतुलन की अवस्था है |योगी आसनों के अभ्यास से शारीरिक असमर्थता और मानसिक बाधाओं से स्वयं को मुक्त कर लेता है |वह संसार की सेवा में  परमात्मा को अपने समस्त कर्म और उसके फलों को समर्पित कर देता है |आसनों पर अधिकार प्राप्त कर लेने पर लाभ -हानि ,जय -पराजय ,यश -अपयश ,शरीर- मन,मन -आत्मा की द्वैध अवस्था नष्ट हो जाती है और तब साधक योगमार्ग की चौथी स्थिति प्राणायाम की ओर उन्मुख होता है |प्राणायाम  के अभ्यास से  नासिकाएँ,  नासिका के मार्ग ,झिल्लियां  ,वायु प्रणाली को सशक्त बनाने की आवश्यकता होती है |प्राणायाम के अंतर्गत 'आयाम ' का अर्थ लम्बाई,विस्तार कसाव या प्रतिरोध है | अतः प्राणायाम शब्द का अर्थ श्वासों की व्याप्ति -विस्तार एवं नियंत्रण है |श्वासों के सभी प्रकार के कार्य सम्पादन  पर यह नियंत्रण लाता है ;जैसे श्वसन या पूरक ,उच्छ्वसन या रेचक ,श्वास को बाहर की ओर रोकना  अर्थात कुम्भक  कहलाता है |  कुम्भक ऐसी स्थिति है जिसमें श्वास लेने और श्वास निकालने की दोनों ही स्थितियां नहीं होती हैं | व्यक्ति एकाग्रता या ध्यान के बिना किसी वस्तु पर प्रभुत्व प्राप्त नहीं कर सकता है | विश्व को रूप देने वाले और उसे नियंत्रित करने वाले परमात्मा का ध्यान किये बिना व्यक्ति अपने अंतर के दिव्य अर्थात आत्मा को प्रकाशित नहीं कर पाता | इस ध्यान की प्राप्ति के लिए एकतत्वाभास का ज्ञान आवश्यक है -"वह एक तत्व जो सभी में व्याप्त है ,प्राणिमात्र की आत्मा है ,जो अपने एक रूप को अनेकों रूप में प्रदर्शित करता है | इसलिए साधक को एकाग्रता की प्राप्ति के लिए "ॐ" पर ध्यान   केन्द्रित करना होता है जो परमात्मा का प्रतीक है |   
   

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