Saturday 29 October 2011

योग से रोगोपचार

यौगिक चिकित्सा-पद्धति  मनोविज्ञान ,शरीर विज्ञानं ,रसायन विज्ञानं ,पंच कोष ,पंच प्राण ,ग्रन्थियों तथा तत्वों के सिद्धांत पर आधारित हैं | हमारे शरीर में पर्याप्त प्रतिरोधक शक्ति विद्यमान है जो रोगों को जड़ से उखाड़ने  में समर्थ है | इस पद्धति के अंतर्गत शरीर की शुद्धि, अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को सक्रिय बनाने  ,सभी संस्थानों [नाड़ी, श्वसन, पाचन,रक्त -परिभ्रमण ,मल निष्कासन ] के कार्यों को उचित ढंग से संचालित करना, उपचार की अपेक्षा परहेज पर बल देना ,ब्रह्मचर्य को महत्व देना व आहार नियंत्रण से रोगों का निराकरण करना, चित्त शुद्धि ,आत्मिक पवित्रता ,षट्कर्म ,आसन, प्राणायाम,ध्यान आदि के द्वारा शरीर और मन को तनाव रहित करते हुए रोगोत्पत्ति  कारणों को समाप्त करना शामिल है | इनमें से कुछ पद्धतियों का वर्णन निम्नवत किया जा रहा है :----
षट्कर्म :-नेति क्रिया जिसमें जलनेति ,सूत्रनेति प्रमुख हैं |चूंकि नासिका के ऊपरी भाग और मस्तक की संधि पर अनेक नस -नाड़ियों का मेल होता है,अतः नेति से इनकी शुद्धि व सक्रियता में वृद्धि होती है |इससे आंख ,नाक, कान, गला व मष्तिष्क सभी अंग प्रभावित होते हैं |नासिका द्वारा जल-पान,दुग्ध-पान, घृत-पान आदि के प्रयोग से रोगों का इलाज किया जाता  है |
कुन्जल:-आमाशय और आहार नली की सफाई हेतु गुनगुना जल पीकर मुंह से ही निकला जाता है |इससे अम्ल पित्त और कफ बाहर आ जाता है |मन्दाग्नि ,रक्त विकार ,विष विकार ,पित्त के रोगों ,एसिडिटी और दमा रोग ठीक हो जाते हैं |
बस्ती या एनिमा :-बड़ी आंत में मल सड़ने से एवं मल के रुकने से विकार पैदा हो जाता है |इसके लिए इस  क्रिया के द्वारा मल को निष्काषित किया जाता है जिसके कारण बड़ी आंतें तथा पाचन तन्त्र सुचारू रूप से काम  करने लगती है | इस क्रिया से गैस ,बदहजमी ,बवासीर,कब्ज एवं पेट के अन्य रोगों को राहत मिलती है |
नौलि:--छोटी -बड़ी आँतों ,पेट की मासपेशियों ,स्नायु और रक्त वाहिनी नाड़ियों को यह क्रिया सशक्त बनाती  है तथा वात सम्बन्धी दोषों को दूर करने में सहायक होती है | इससे पेट के सभी रोग स्वतः दूर हो जाते हैं | 
त्राटक ,चक्षु प्रक्षालन तथा व्यायाम :--इस क्रिया से नेत्र पुष्ट एवं स्नायु मंडल शक्तिमान होते हैं | मन की एकाग्रता व शांति स्थिर होती है साथ ही संकल्प शक्ति का अभूतपूर्व  विकास हो जाता है |चक्षु प्रक्षालन तथा चक्षु व्यायाम से नेत्रों को स्वस्थ रखा जा सकता है |
कपालभाति:--इस क्रिया से कपाल अथवा मष्तिष्क की शुद्धि, मानसिक शांति तथा आँतों को अतिरिक्त शक्ति प्राप्त होती है | इससे सभी मुख्य ग्रन्थियां सक्रिय व सशक्त होती है | कपाल की नस नाड़ियों में एकत्र गंदगी बाहर निकल आती है जिससे नाक, कान एवं गला रोगों की सम्भावना कम हो जाती है |
आसन : ---रोग मुक्ति में आसन का विशेष योगदान होता है |इससे मन और शरीर दोनों स्वस्थ एवं पुष्ट होते हैं | आसन से स्नायु मंडल का तनाव दूर हो जाता है |मांसपेशियों के फैलने और सिकुड़ने से उनकी प्रकारांतर से मालिश होती रहती है तथा पेशियों के सक्रिय होने से रक्त प्रवाह शरीर के सभी अंगों तक आसानी से पहुँचता रहता है| आसनों के दौरान दीर्घ श्वास की क्रिया उत्पन्न होने से अधिक आक्सीजन मिलता है और रक्त शुद्धि भी होती रहती है |अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से पाचक रस उचित मात्रा में निकलने से समस्त संस्थान अपना कार्य सुचारू रूप से करते रहते  हैं |आसन से रीढ़ की हड्डी अधिक सशक्त व लचीली बन जाती है |अतः रोगों के शमन हेतु निम्नांकित आसनों का प्रयोग लाभकारी  सिद्ध होता है :-
रक्त हीनता में पवन मुक्तासन ,शवासन,सूर्य- नमस्कार,भुजंगासन,शलभासन वज्रासन लाभकारी होगा |नजला में सुप्त वज्रासन ,शशांक आसन ,शवासन तथा दमा रोगी के लिए शवासन, पवनमुक्तासन,सर्वांग आसन ,सुप्त वज्रासन,पश्चिमोत्तान आसन ,व शशांक आसन लाभकारी होगा |
पाचन क्रिया सुदृढ़ रखने हेतु सूर्य नमस्कार ,शवासन ,पश्चिमोत्तान आसन ,शलभासन धनुरासन ,अर्धमत्स्येन्द्र आसन ,सर्वांगासन ,हलासन ,सुप्त वज्रासन उपयुक्त होगा |
ह्रदय रोगी के लिए पवनमुक्तासन और शवासन ही पर्याप्त होगा |
अनिद्रा दूर करने के लिए सूर्य नमस्कार ,शवासन योगमुद्रा शशांकासन ,सर्वांगासन , सुप्तवज्रासन ,भुजंगासन पवनमुक्तासन करना चाहिए |
उक्त रक्त चाप के रोगी को पवनमुक्तासन ,शवासन ,वज्रासन तथा निम्न रक्त चाप के रोगी को सूर्य नमस्कार, शवासन ,शशांकासन ,व भुजंगासन करना चाहिए |
यकृत रोगी को सूर्य नमस्कार ,शवासन ,पश्चिमोत्तानासन ,शशांकासन, शलभ व धनुरासन करना चाहिए |  बवासीर रोगी हेतु सूर्य नमकार ,सर्वांगासन ,उष्ट्रासन ,सुप्त वज्रासन ,शवासन एवं पश्चिमोत्तान आसन लाभकारी होगा |स्नायु दौर्बल्य एवं विस्मृति दूर करने के लिए शीर्षासन ,सर्वांगासन ,सूर्यनमस्कार ,ताड़ासन ,सुप्त वज्रासन ,पश्चिमोत्तानासन, शवासन, योगमुद्रा ,शशांकासन करना उपयुक्त होगा |
वायु विकार के लिए पवनमुक्तासन ,सूर्य नमस्कार ,पश्चिमोत्तानासन ,भुजंगासन ,शलभासन ,धनुरासन करना चाहिए |
मधुमेह रोगी को शीर्षासन, सर्वांगासन,जानू शीर्षासन,धनुर्रासन,मयूरासन अर्ध नावासन व शलभासन करना चाहिए | 
कोष्ठबद्धता दूर करने हेतु शीर्षासन ,सर्वांगासन ,खड़े होकर करने वाले सभी आसन ,उत्तानासन ,एवं पश्चिमोत्तानासन लाभकारी होगा | प्रभावित रोगी को अपनी क्षमता के अनुरूप ही उपर्युक्त आसनों का प्रयोग करना चाहिए और उचित यह होगा की किसी कुशल शिक्षक की देख रेख में ही आसनो का अभ्यास करें | 
कुछ रोगों के निदान हेतु निम्नांकित सारिणी के अनुरूप आसनों का अभ्यास किया जाना लाभकारी होगा।
कान,आँख एवं नाक का दर्द  :-सिद्धासन ,सर्वागासन एवं अर्धमत्स्येन्द्र आसन
स्थायी कब्ज :-हलासन ,धनुरासन मत्स्यासन ,पाद ह्स्तासन
कुष्ठ रोग :-शीर्षासन ,पद्मासन सिद्धासन सिंहासन ,गोमुख आसन ,वक्रासन।
मोटापा :-मंडूक आसन ,पश्चिमोत्तान आसन ,सुप्त वज्रासन धनुरासन एवं अर्ध मत्स्येन्द्र आसन।
मासिक धर्म :-धनुरासन मत्स्यासन ,सुप्त वज्रासन एवं पश्चिमोत्तान आसन।
चरम रोग :- पद्मासन सिद्धासन ,सिंहासन ,वीरासन मन्दूक आसन ,सुप्त वज्रासन।
नपुसकतत्व :- पद्मासन ,सिद्धासन सिंहासन ,मंडूक आसन ,वज्रासन ,सुप्त वज्रासन एवं गोमुख आसन।
कमर का दर्द ;-वक्रासन ,हलासन एवं सूर्य नमस्कार
मुद्राएँ :---   यह  आसन और प्राणायाम के मध्य में प्रयुक्त  होता है |महामुद्रा से यौनरोग ,कुष्ठ रोग ,अजीर्ण ,भगन्दर एवं वायु रोग दूर होते हैं |विपरीत करनी मुद्रा से यौवन स्थिर रहता है जबकिअश्विनी मुद्रा से गुप्त रोग नष्ट होते हैं |भुजंगी मुद्रा से अजीर्णता दूर होती है |योग मुद्रा से यकृत सम्बन्धी समस्त रोग ठीक होते हैं ,जठराग्नि बढती है तथा नाड़ियाँ शुद्ध हो जाती हैं |काकी मुद्रा से अम्ल पित्त दूर होता है तथा पाशिनी मुद्रा से बल में वृद्धि होती है  |
बंध :--बंध का तात्पर्य बाँधने से है |प्राणायाम के दौरान बंधों का प्रयोग शरीर और मन दोनों को सशक्त करता है तथा ग्रन्थियां शक्तिशाली होती है | जालन्धर बंध से यौवन स्थिर एवं गले के रोग ठीक हो जाते हैं |उद्दीयान  बंध से आंतें ,गुर्दे एवं लीवर के रोग ठीक होते हैं |पैनक्रियाज ,यकृत ,एड्रिनल आदि ग्रन्थियां प्रभावित होती हैं | मूल बंध से बवासीर ,पौरुष ग्रन्थि के दोष ,खुजली ,अजीर्ण ,अनिद्रा बुढ़ापा ,दुर्बलता  आदि  दूर होते हैं | काम शक्ति और मन पर नियंत्रण रहता है और शरीर में हल्कापन भी  महशूस होता है |
प्राणायाम :---प्राण शरीर का आधार पुंज है | प्राण की कमी अथवा असंतुलन से भयंकर रोग जन्म ले लेते हैं | फेफड़े जो २४ घंटे में आठ टन रक्त शुद्ध करते है ,में किसी प्रकार का विकार या अवरोध रोग उत्पन्न कर सकता है | अतः प्राणायाम करने से शरीर में व्याप्त प्राणों व उप प्राणों में संतुलन बना रहता है |मन में शांति एवं शरीर में शिथिलता  का अनुभव होता है | नाड़ी शोधन ,भ्रस्त्रिका ,शीतली, उज्जायी, अनुलोम- विलोम एवं भ्रामरी प्राणायाम से मन और शरीर दोनों स्वस्थ व चैतन्य रहता है |
ध्यान :---रोगों के शमन में ध्यान का सर्वाधिक योगदान माना जाता है क्योंकि ध्यान से मन निर्विचार ,राग- द्वेष रहित,आनन्दमय तथा उलझनों एवं तनाव से मुक्त होता है | इससे मन में प्रसन्नता एवं हल्कापन भी महशूस  होता है |अतः ध्यान  रोगों को दूर करने के लिए रामबाण के रूप में प्रयुक्त हो सकता है |ध्यान अध्यात्मिक साधना का प्रमुख सोपान है |इसे मन का स्नान भी माना जाता है  / अतः ध्यान से आत्मानुभूति एवं आत्मानुभूति से ईश्वर की प्राप्ति सहज हो जाती है |
         

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