Wednesday 26 October 2011

योगासन में सावधानियां

महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में योगासन को परिभाषित करते हुए कहा है कि" स्थिरं  सुखम आसनम" अर्थात सुखपूर्वक स्थिर होकर बैठने की स्थिति को ही आसन कहा जाता है। जिस प्रकार से सुदृढ़ नींव के बिना कोई इमारत अधिक दिनों तक खड़ी नहीं रह सकती ठीक उसी प्रकार आचरण एवं  व्यवहार में यम एवं नियम के तत्वों के अभ्यास के बिना मनुष्य का शरीर सुदृढ़ ,स्वस्थ एवं दीर्घजीवी नहीं हो सकता | अतः साधक से अनुशासन ,आत्मविश्वास और निरंतर नियमित रूप से अभ्यास करते रहने की अपेक्षा की जाती है |आसन के लिए निम्नांकित तथ्यों को ध्यान में रखना आवश्यक है :-
आहार- विहार ----आसनों के अभ्यास के पूर्व मूत्राशय पूर्णतया रिक्त होना चाहिए और आंतें भी खाली होनी चाहिए अर्थात मलमूत्र त्याग करके ही आसन प्रारम्भ करना चाहिए |यदि कभी ऐसी स्थिति सम्भव न हो तो आसनों का प्रारम्भ शीर्षासन एवं सर्वानगसम आसन से  करना चाहिए | आँतों को रिक्त व शिथिल किये बिना कठिन प्रकृति के आसनों का अभ्यास सर्वथा वर्जित है |आसनों के पूर्व स्नान यथासम्भव कर लेना चाहिए और आसन के कम से कम आधे घंटे बाद ही आसन करना चाहिए | खाली पेट का तात्पर्य भोजन करने के कम से कम ६ घंटे पश्चात से है |यदि इसमें कोई कठिनाई हो तो आसन के १५ मिनट पूर्व एक प्याली चाय ,अमृतपेय अथवा एक  गिलास दूध लिया जा सकता है |आसन करने के एक घंटे पश्चात स्वल्पाहार अथवा भोजन किया जा सकता है |आसन करते समय यदि किसी अंग विशेष में खिंचाव अथवा तनाव महशूस  हो तो ऐसी स्थिति में वह आसन कदापि न करें और शवासन में शरीर को शिथिल करके थोडा विश्राम कर लें |आसन करते समय किसी से प्रतिस्पर्धा कदापि न करें बल्कि अपनी सामर्थ्य में ही आसन करने का प्रयास करे |
स्थान एवं समय ----
आसन के लिए स्थान साफ, सुथरा एवं एकान्त  होना  चाहिए क्योंकि स्वच्छ व  प्रदूषणमुक्त स्थान से एकाग्रता बनी रहती है तथा किसी प्रकार के रोग के आक्रमण की सम्भवना नहीं रहती है| |सर्वाधिक लाभकारी स्थान कोई पार्क अथवा छत माना जाता है |यदि यह सम्भव न हो तो हवादार कक्ष पर्याप्त होगा |ध्वनि प्रदूषण से आसन क्रिया  में बाधा उत्पन्न हो सकता है | अतः हरे भरे मैदान अथवा  पार्क  में आसन करना अधिक उपयुक्त होगा |  आसनों के अभ्यास के लिए सूर्योदय के पूर्व अथवा सूर्यास्त के पश्चात का समय अधिक  उपयुक्त होता है |प्रातः काल की अपेक्षा सायंकाल में शरीर सरलता से गतिशील रहता है और आसन बड़ी सरलता से किया जा सकता है |प्रातःकाल का अभ्यास व्यक्ति को अपने व्यवसाय के लिए अधिक तत्पर बनाता है वहीं सायंकाल का अभ्यास दिनभर की शरीर की थकावट को दूर करके व्यक्ति को प्रफुल्लित एवं शान्त बनाता है |यदि प्रातःकाल  एवं सांयकाल दोनों समय आसन करने का दृढ निश्चय हो सके तो प्रातःकाल कठिन  प्रकृति के आसन और सांयकाल सरल एवं सहायक आसन करना चाहिए |कई घंटे कड़ी धूप में रहने अथवा कठिन परिश्रम के ठीक पश्चात आसन कभी भी नहीं करना चाहिए बल्कि थोडा विश्राम करने के पश्चात ही आसन करना चाहिए |
अन्य सावधानियां-------
आसनों के अभ्यास के पूर्व श्वासोच्छ्वास क्रिया के अंतर्गत दो चार बार लम्बी गहरी साँस लेकर अंत में दबाव डालकर साँस को पूरी तरह बाहर निकाल देना चाहिए तथा चेहरे पर प्रसन्नता के भाव लाते हुए आसन का शुभारम्भ करना चाहिए |श्वास क्रिया केवल नासिका से ही करनी चाहिए |आसन की प्रक्रिया अथवा उसकी स्थिति विशेष में होने पर श्वास को सहज रूप से आने जाने देना चाहिए और आसनों का अभ्यास करते समय केवल शरीर को ही सक्रिय रखना चाहिए जबकि मष्तिष्क को निष्क्रिय किन्तु सतर्क व सजग रखना चाहिए | यदि मष्तिष्क पर तनाव देकर आसन किया जाता है तो  आप अपनी गलतियों को सुधारनें में सर्वथा असमर्थ होंगे |आसन हमेशा दोनों आँखें बंद करके ही करना चाहिए ताकि एकाग्रता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़ सके| क्षयरोग , रक्तचाप ,सिरदर्द तथा हृदयरोग से पीड़ित साधक को शीर्षासन एवं सर्वानगसम आसन करने के पूर्व पश्चिमोत्तानासन ,उत्तानोत्पाद  आसन,सर्पासन नावासन आदि आसनों का अभ्यास करना चाहिए |पीछे की ओर झुकने वाले आसन अधिक करना चाहिए ताकि हमारे शरीर का संतुलन हमेशा बना रहे |सर्वाइकल से पीड़ित व्यक्ति को आगे की ओर झुकने वाले आसन कदापि नहीं करने चाहिए | महिलाओं को मासिक ऋतुश्राव के समय आसन नही करने चाहिए बल्कि सहायक आसन के साथ प्राणायाम ही लाभकारी होगा |गर्भावस्था के प्रथम तीन माह में सरल आसन किये जा सकते है किन्तु आगे झुकने वाले आसन नहीं करने चाहिए |गर्भावस्था के पूर्ण काल में बिना कुम्भक के प्राणायाम का अभ्यास किया जा सकता है |आसन हमेशा प्रबुद्ध एवं कुशल मार्गदर्शक के निर्देशन में ही करें अन्यथा गलत आसनों के कारण स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है |आसन की निर्दिष्ट प्रक्रिया के अनुसरण से मन प्रफुल्लित ,शरीर हल्का एवं चित्त शान्त हो जाता है तथा शरीर मन और आत्मा की एकरूपता का सहज अनुभव होने लगता है | आसन क्रिया में निरन्तरता का महत्वपूर्ण स्थान होता है क्योंकि निरन्तरता से साधक के दृष्टिकोण में सहज परिवर्तन होने लगता है जिससे वह अपने को आहार ,विहार ,कामवासना ,स्वच्छता और शील के सम्बन्ध में आत्मानुशासन द्वारा हमेशा एक नये जीवन का अनुभव करता है |        


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